Monday, June 25, 2012

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सेक्‍स को दबाए नहीं, उसे समझें: ओशो Fri, 12/17/2010 - 15:07 — Other sources
'हमने सेक्स को सिवाय गाली के आज तक दूसरा कोई सम्मान नहीं दिया। हम तो बात करने में भयभीत होते हैं। हमने तो सेक्स को इस भांति छिपा कर रख दिया है जैसे वह है ही नहीं, जैसे उसका जीवन में कोई स्थान नहीं है। जब कि सच्चाई यह है कि उससे ज्यादा महत्वपूर्ण मनुष्य के जीवन में और कुछ भी नहीं है। लेकिन उसको छिपाया है, उसको दबाया है। दबाने और छिपाने से मनुष्य सेक्स से मुक्त नहीं हो गया, बल्कि मनुष्य और भी बुरी तरह से सेक्स से ग्रसित हो गया। दमन उलटे परिणाम लाया है...।' सेक्स को समझो : युवकों से मैं कहना चाहता हूँ कि तुम्हारे माँ-बाप तुम्हारे पुरखे, तुम्हारी हजारों साल की पीढ़ियाँ सेक्स से भयभीत रही हैं। तुम भयभीत मत रहना। तुम समझने की कोशिश करना उसे। तुम पहचानने की कोशिश करना। तुम बात करना। तुम सेक्स के संबंध में आधुनिक जो नई खोजें हुई हैं उसको पढ़ना, चर्चा करना और समझने की कोशिश करना कि क्या है सेक्स? सेक्स का विरोध न करें : सेक्स थकान लाता है। इसीलिए मैं तुमसे कहता हूँ कि इसकी अवहेलना मत करो, जब तक तुम इसके पागलपन को नहीं जान लेते, तुम इससे छुटकारा नहीं पा सकते। जब तक तुम इसकी व्यर्थता को नहीं पहचान लेते तब तक बदलाव असंभव है। मैं बिलकुल भी सेक्स विरोधी नहीं हूँ। क्योंकि जो लोग सेक्स का विरोध करेंगे वे काम वासना में फँसे रहेंगे। मैं सेक्स के पक्ष में हूँ क्योंकि यदि तुम सेक्स में गहरे चले गए तो तुम शीघ्र ही इससे मुक्त हो सकते हो। जितनी सजगता से तुम सेक्स में उतरोगे उतनी ही शीघ्रता से तुम इससे मुक्ति भी पा जाओगे। और वह दिन भाग्यशाली होगा जिस दिन तुम सेक्स से पूरी तरह मुक्त हो जाओगे। धन और सेक्स : धन में शक्ति है, इसलिए धन का प्रयोग कई तरह से किया जा सकता है। धन से सेक्स खरीदा जा सकता है और सदियों से यह होता आ रहा है। राजाओं के पास हजारों पत्नियाँ हुआ करती थीं। बीसवीं सदी में ही केवल तीस-चालीस साल पहले हैदराबाद के निजाम की पाँच सौ पत्नियाँ थीं। मैं एक ऐसे व्यक्ति को जानता हूँ जिसके पास तीन सौ पैंसठ कारें थीं और एक कार तो सोने की थी। धन में शक्ति है क्योंकि धन से कुछ भी खरीदा जा सकता है। धन और सेक्स में अवश्य संबंध है। जो सेक्स का दमन करता है वह अपनी ऊर्जा धन कमाने में खर्च करने लग जाता है क्योंकि धन सेक्स की जगह ले लेता है। धन ही उसका प्रेम बन जाता है, धन के लोभी को गौर से देखना- सौ रुपए के नोट को ऐसे छूता है जैसे उसकी प्रेमिका हो और जब सोने की तरफ देखता है तो उसकी आँखें कितनी रोमांटिक हो जाती हैं... बड़े-बड़े कवि भी उसके सामने फीके पड़ जाते हैं। धन ही उसकी प्रेमिका होती है। वह धन की पूजा करता है, धन यानी देवी। भारत में धन की पूजा होती है, दीवाली के दिन थाली में रुपए रखकर पूजते हैं। बुद्धिमान लोग भी यह मूर्खता करते देखे गए हैं। दुख और सेक्स : जहाँ से हमारे सुख दु:खों में रूपांतरित होते हैं, वह सीमा रेखा है जहाँ नीचे दु:ख है, ऊपर सुख है इसलिए दु:खी आदमी सेक्सुअली हो जाता है। बहुत सुखी आदमी नॉन-सेक्सुअल हो जाता है क्योंकि उसके लिए एक ही सुख है। जैसे दरिद्र समाज है, दीन समाज है, दु:खी समाज है, तो वह एकदम बच्चे पैदा करेगा। गरीब आदमी जितने बच्चे पैदा करता है, अमीर आदमी नहीं करता। अमीर आदमी को अकसर बच्चे गोद लेने पड़ते हैं! उसका कारण है। गरीब आदमी एकदम बच्चे पैदा करता है। उसके पास एक ही सुख है, बाकी सब दु:ख ही ‍दु:ख हैं। इस दु:ख से बचने के लिए एक ही मौका है उसके पास कि वह सेक्स में चला जाए। वह ही उसके लिए एकमात्र सुख का अनुभव है, जो उसे हो सकता है। वह वही है। सेक्स से बचने का सूत्र : जब भी तुम्हारे मन में कामवासना उठे तो उसमें उतरो। धीरे- धीरे तुम्हारी राह साफ हो जाएगी। जब भी तुम्हें लगे कि कामवासना तुम्हें पकड़ रही है, तब डरो मत शांत होकर बैठ जाओ। जोर से श्वास को बाहर फेंको- उच्छवास। भीतर मत लो श्वास को क्योंकि जैसे ही तुम भीतर गहरी श्वास को लोगे, भीतर जाती श्वास काम-ऊर्जा को नीचे की तरफ धकाती है। जब तुम्हें कामवासना पकड़े, तब बाहर फेंको श्वास को। नाभि को भीतर खींचो, पेट को भीतर लो और श्वास को फेंको...जितनी फेंक सको फेंको। धीरे-धीरे अभ्यास होने पर तुम संपूर्ण रूप से श्वास को बाहर फेंकने में सफल हो जाओगे। सेक्स और प्रेम : वास्तविक प्रेमी अंत तक प्रेम करते हैं। अंतिम दिन वे इतनी गहराई से प्रेम करते हैं जितना उन्होंने प्रथम दिन किया होता है; उनका प्रेम कोई उत्तेजना नहीं होता। उत्तेजना तो वासना होती है। तुम सदैव ज्वरग्रस्त नहीं रह सकते। तुम्हें स्थिर और सामान्य होना होता है। वास्तविक प्रेम किसी बुखार की तरह नहीं होता यह तो श्वास जैसा है जो निरंतर चलता रहता है। प्रेम ही हो जाओ। जब आलिंगन में हो तो आलिंगन हो जाओ, चुंबन हो जाओ। अपने को इस पूरी तरह भूल जाओ कि तुम कह सको कि मैं अब नहीं हूँ, केवल प्रेम है। तब हृदय नहीं धड़कता है, प्रेम ही धड़कता है। तब खून नहीं दौड़ता है, प्रेम ही दौड़ता है। तब आँखें नहीं देखती हैं, प्रेम ही देखता है। तब हाथ छूने को नहीं बढ़ते, प्रेम ही छूने को बढ़ता है। प्रेम बन जाओ और शाश्वत जीवन में प्रवेश करो। साभार : पथ के प्रदीप, धम्मपद : दि वे ऑफ दि बुद्धा, ओशो उपनिषद, तंत्र सूत्र, रिटर्निंग टु दि सोर्स, एब्सोल्यूट ताओ से संकलित अंश। सौजन्य : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन

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