Monday, June 25, 2012

maa anandmayi


माँ आनंदमयी माँ आनंदमयी
माँ आनंदमयी का जन्म एक बंगाली परिवार में 30 अप्रैल, 1896 को त्रिपुरा के खेड़ा नामक एक छोटे से गाँव में हुआ था जो कि बंगलागॉदेश में स्थित है। बचपन से ये संतपुरुषों कों पसंद करती थीं। केवल 12 वर्ष की आयु में ही इनका विवाह भोलानाथ के साथ हो गया जो कि पुलिस विभाग में कार्य करते थे। शादी के बाद इनका समय बड़ी कठिनाईयों से गुजारा चला। लेकिन स्वंय को इन्होंने दृढ़निश्चयी बनाए रखा। इस दौरान इन्होंने अपने आपको कृष्ण की भक्ति में लीन करके धीरे धीरे अपने अंदर दैवीय स्वरुप को विकसित किया। इन्होंने अपना पहला धार्मिक प्रवचन 26 वर्ष की आयु में दिया। जैसे जैसे समय बीतता गया इनकी लोकप्रियता बढ़ने लगी दूर दूर से लोग इनके प्रवचन सुनने को आने लगे।अपने इस असाधारण जीवन में इन्होंने देश के कई हिस्सों की यात्राएं की तथा कई प्रभावशाली व्यक्तियों के संपर्क में आईं जिनमें से महात्मा गाँधी एक थे, जिनसे उनका आत्मीय रिश्ता बन चुका था और ये उनके पिता स्वरूप से प्रभावित थीं। माँ आनंदमयी का स्वर्गवास 1983 में हो गया।
माँ आनंदमयी पर लेख नारियाँ अपने मृदु, भावमय एवं स्नेहिल हृदय के कारण, अपनी त्यागशीलता या समर्पण-भावना के कारण आत्मोन्नति या ईश्वर-साक्षात्कार के क्षेत्र में आसानी से और सचमुच ही आगे बढ सकती है, इसमें कोई संदेह नहीं। परंतु शर्त यह है कि उन्हें अवसर मिलना चाहिए और उस अवसर का अधिकाधिक सदुपयोग किया जाय इसके लिए पथप्रदर्शन मिलना चाहिए। अतीत काल में झाँकते है तो भारतवर्ष में शबरी, गार्गी, मैत्रेयी, जनाबाई और मीरां जैसी विदुषी नारीयाँ दिखाई देती है। वर्तमानकाल में भी ऐसी ज्ञानी, योगी या भक्त नारियाँ है और हो रही है यह इस देश का परम भाग्य है । साधना की उच्च अवस्था प्राप्त सभी नारियाँ प्रसिद्ध नहीं होती । कतिपय अज्ञात अवस्था में भी रहती हैं फिर भी भारत के आध्यात्मिक गगन में जो इनेगुने, कतिपय असाधारण आकर्षक आभावाले नक्षत्रों का उदय हुआ है और जो अपने पावन प्रकाश से पृथ्वी को प्रकाशित करते है, उनमें माँ आनंदमयी का स्थान विशेष उल्लेखनीय एवं निराला है। प्रकाश के पथ में अभिरुचि रखनेवाले लोगोंने उनका नाम अवश्य सुना होगा। माँ आनंदमयी का जन्म बंगाल में हुआ था परंतु उनका कार्यक्षेत्र केवल बंगाल तक ही सीमित नहीं है । वे बंगाल की नहीं अपितु भारत की हैं। विशाल अर्थ में कहा जाये तो वे समस्त संसार की हो गई है। भारत के विभिन्न प्रदेशों में एवं भारत के बाहर विदेशो में भी उनके असंख्य प्रसंशक और अनुयायी है। कई साधक उनकी ओर आदर से देखते रहते है। वे ज्यादातर विचरण करती रहती है। उनका नाम भी सूचक है, नाम के अर्थानुसार वे सचमुच आनंदमयी है। उनके मुख पर अतीन्द्रिय अवस्था का आनंद छलकता हुआ दिख पड़ता है। मानो आनंद की प्रतिमूर्ति सामने ही बैठी हो ऐसा प्रतीत होता है। वही अलौकिक, विशुद्ध आनंद उनके नयन, वाणी एवं मुख से सहज ही निःसृत होता रहता है। उसे देख उनका नाम सचमुच सार्थक हो ऐसा लगता है। आध्यात्मिक साधना की उच्चोच्च अवस्था प्राप्त होने पर भी माँ आनंदमयी अत्याधिक सरल, निश्छल एवं विनम्र है । उम्र बडी होने पर भी उनका हृदय छोटी बाला की भाँति सरल है । श्वेत वस्त्र, लंबे-लंबे काले-काले बाल, मस्तक पर जटा, गौर वर्ण लेकिन शरीर थोडा स्थूल दिखता है । उनके निकट बैठना यह जीवन का एक अविस्मरणीय अनुपम सौभाग्य है। उनका व्यक्तित्व आकर्षक एवं प्रभावोत्पादक होने के कारण असंख्य लोग उनके इर्द गिर्द इक्ट्ठे होते है। वे पढ़ी लिखी नहीं है लेकिन आत्मज्ञानी है और साधना के मार्ग में तो आंतरिक ज्ञान, अनुभवजन्य ज्ञान ही महत्वपूर्ण होता है, इसमें क्या शक है ? ऐसा ज्ञान आवश्यक एवं अमूल्य माना जाता है । उनके ज्ञानालोक से प्रेरित व प्रभावित होकर बडे-बडे पंडित, प्रोफेसर एवं साक्षर उनके सत्संग एवं पथप्रदर्शन से लाभान्वित होते है। माँ आनंदमयी ने गृहस्थाश्रम में रहकर भी आत्मविकास पर ही जोर दिया और यही कारण है कि उन्होंने अपने पति को भी साधनापरायण बनाया, उनके हृदय को जीत लिया। जब पति का देहांत हो गया तो उनके सभी लौकिक बंधन टूट गये और वे अकेले ही विचरण करने लगी। सादगी, स्नेह तथा अपरिग्रह की प्रतिमूर्ति समान माँ आनंदमयी भारत के संतो में महत्वपूर्ण मूर्धन्य स्थान रखते हैं। नारी होने से उनका मूल्य और भी बढ़ जाता है। नारियाँ आत्मविकास की अधिकारिणी नहीं है, आत्मिक क्षेत्र में उनका कोई योगदान नहीं है ऐसा मानने वाले स्त्री-पुरुषों के लिए उनका जीवन एक प्रेरणा-स्त्रोत के समान है । मां आनंदमयी अपने जीवन द्वारा सिद्ध करती है कि आत्मिक मार्ग में नारी आगे बढ़ सकती है, इतना ही नहीं, वे सर्वोच्च पद पर आसीन हो सकती है। यों तो वे योगमार्ग की उपासिका है पर उनका हृदय भक्त का है और इसी से भजनकीर्तन में उनकी विशेष रुचि है। नाम संकीर्तन उनका प्रिय विषय है । संसार के विषय उन्हें लुभा नहीं सकते । उनका अंतर कमल की भाँति अलिप्त रहता है । भोग विलास के वातावरण में रहने पर भी त्याग के आदर्श से वे वंचित नहीं है । सन 1956 के जून महिने की बात है । माँ आनंदमयी उस समय सोलन स्टेट के राजा के निमंत्रण से सीमला हिल्स के प्रसिद्ध स्थान सोलन में पधारी थी । इस बीच एक बार रात को प्रायः दस बजे उनके पास एक मध्यम वर्ग का आदमी आया और उसने कहा, ‘माताजी, आपके लिए यह साड़ी लाया हूँ।’ माताजी कमरे में चहलकदमी कर रही थी, रुक गई और बोली, ‘साड़ी लाये हो ? मेरे पास तो है । अतिरिक्त लेके क्या करूँ?’ ‘साड़ी तो आपके पास होगी ही। आपको भला किस चीज की कमी है ? मैं तो यह प्रेम से लाया हूँ । स्वीकारोगी तो मुझे खुशी होगी।’ इतना बोलते हुए उस सज्जन की आँखे गिली हो गई । वे ज्यादा बोल न सके। माताजी का दिल पिघल गया। उन्होंने वह श्वेत साड़ी ले ली। अंदर के कमरे में जाकर उन्होंने वह साड़ी पहन ली और बाहर आई। उनके हाथ में पहले पहनी हुई साड़ी थी। उसे अर्पण करते हुए कहने लगी, ‘यह साड़ी तुम ले लो। जरुरत से ज्यादा साड़ियाँ इकठ्ठी करके मुझे क्या करना है ? आवश्यकता पड़ने पर परमात्मा देता है।’ उस सज्जन ने साड़ी ले ली, यूँ कहो उसे लेनी पड़ी । प्रसंग छोटा था मगर उसका संदेश बड़ा था। इस घटना से माँ आनंदमयी की त्याग-भावना पर प्रकाश पड़ता है। माँ आनंदमयी प्रवचन नहीं करती । प्रश्नों के उत्तर देती है । मीतभाषिणी होकर अपनी उपस्थिति से ही शांति प्रदान करती है, प्रेरणा व पथप्रदर्शन देती है । उनका शांत समागम भी जीवन का पाथेय बन जाता है और जीवन में क्रांति पैदा कर देता है । उनकी आध्यात्मिक प्रसंग अनेकों के लिए आशीर्वाद समान है । शांत रहकर भी अत्यधिक महत्वपूर्ण काम करती है । भारत के आध्यात्मिक इतिहास में वे अमर हैं और रहेंगी ।

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