Monday, June 25, 2012

shreeram sharma


पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य भारत के एक युगदृष्टा मनीषी थे जिन्होने अखिल भारतीय गायत्री परिवार की स्थापना की। उन्होंने अपना जीवन समाज की भलाई तथा सांस्कृतिक व चारित्रिक उत्थान के लिये समर्पित कर दिया। उन्होंने आधुनिक व प्राचीन विज्ञान व धर्म का समन्वय करके आध्यात्मिक नवचेतना को जगाने का कार्य किया ताकि वर्तमान समय की चुनौतियों का सामना किया जा सके। उनका व्यक्तित्व एक साधु पुरुष, आध्यात्म विज्ञानी, योगी, दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक, लेखक, सुधारक, मनीषी व दृष्टा का समन्वित रूप था। पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य का जन्म 20 सितम्बर,1911 (आश्विन कृष्ण त्रयोदशी विक्रमी संवत् 1967) को उत्तर प्रदेश के आगरा जनपद के आंवलखेड़ा गांव में हुआ था। उनका बाल्यकाल गांव में ही बीता। उनके पिता श्री पं.रूपकिशोर जी शर्मा जी जमींदार घराने के थे और दूर-दराज के राजघरानों के राजपुरोहित, उद्भट विद्वान, भगवत् कथाकार थे।
साधना के प्रति उनका झुकाव बचपन में ही दिखाई देने लगा, जब वे अपने सहपाठियों को, छोटे बच्चों को अमराइयों में बिठाकर स्कूली शिक्षा के साथ-साथ सुसंस्कारिता अपनाने वाली आत्मविद्या का शिक्षण दिया करते थे । वह एक बार हिमालय की ओर भाग निकले और बाद में पकडे जाने पर बोले कि हिमालय ही उनका घर है और वहीं वे जा रहे थे । महामना पं.मदनमोहन मालवीय जी ने उन्हें काशी में गायत्री मंत्र की दीक्षा दी थी। पंद्रह वर्ष की आयु में वसंत पंचमी की वेला में सन् 1926 में ही लोगों ने उनके अंदर के अवतारी रूप को पहचान लिया था। उन्हें जाति-पाँति का कोई भेद नहीं था। वह कुष्ठ रोगियों की भी सेवा करते थे। इस महान संत ने नारी शक्ति व बेरोजगार युवाओं के लिए गाँव में ही एक बुनताघर स्थापित किया व अपने पैरों पर खड़ा होना सिखाया। पूज्य गुरुदेव ने युग निर्माण के मिशन को गायत्री परिवार, प्रज्ञा अभियान के माध्यम से आगे बढ़ाया। वह कहते थे कि अपने को अधिक पवित्र और प्रखर बनाने की तपश्चर्या में जुट जाना- जौ की रोटी व छाछ पर निर्वाह कर आत्मानुशासन सीखना । इसी से वह सार्मथ्य विकसित होगी जो विशुद्धतः परमार्थ प्रयोजनों में नियोजित होगी । राष्ट्र के परावलम्बी होने की पीड़ा भी उन्हे उतनी ही सताती थी जितनी कि गुरुसत्ता के आनेदशानुसार तपकर सिद्धियों के उपार्जन की ललक उनके मन में थी । उनके इस असमंजस को गुरुसत्ता ने ताड़कर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के नाते संघर्ष करने का भी संकेत था । 1927 से 1933 तक का उनका समय एक सक्रिय स्वयं सेवक व स्वतंत्रता सेनानी के रूप में बीता। घरवालों के विरोध के बावजूद पैदल लम्बा रास्ता पार कर वे आगरा के उस शिविर में पहुँचे, जहाँ शिक्षण दिया जा रहा था। मित्रों के साथ भूमिगत हो कार्य करते रहे तथा समय आने पर जेल भी गये । उन्हें कई बार जेल हुई । जेल में भी वह निरक्षर साथियों को शिक्षण देकर व स्वयं अँग्रेजी सीखकर लौटे। स्वतंत्रता की लड़ाई के दौरान कुछ उग्र दौर भी आये, जिनमें शहीद भगतसिंह को फाँसी दिये जाने पर फैले जनआक्रोश के समय उन्होंने भी जमकर इसका विरोध दर्ज कराया। नमक आन्दोलन के दौरान वे आततायी शासकों के समक्ष झुके नहीं, आन्दोलन के दौरान फिरंगी उन्हें पीटते रहे, झण्डा छीनने का प्रयास करते रहे लेकिन उन्होंने झण्डा नहीं छोड़ा। उन्होंने मुँह से झण्डा पकड़ लिया, गिर पड़े, बेहोश हो गये लेकिन झण्डा नहीं छोड़ा। उनकी सहनशक्ति देखकर सब आश्चर्यचकित रह गये । उन्हें तब से ही आजादी के मतवाले उन्मत्त श्रीराम मत्त नाम मिला । अभी भी आगरा में उनके साथ रहे व्यक्ति उन्हें मत्त जी नाम से ही जानते हैं । स्वतंत्रता सेनानी के तौर पर मिलने वाली पेंशन को भी उन्होंने प्रधानमंत्री राहत फण्ड को समर्पित कर दिया। 1935 के बाद उनके जीवन का नया दौर शुरू हुआ, जब गुरुसत्ता की प्रेरणा से वे श्री अरविन्द से मिलने पाण्डिचेरी, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगौर से मिलने शांति निकेतन तथा बापू से मिलने साबरमती आश्रम, अहमदाबाद गये। सांस्कृतिक, आध्यात्मिक मंचो पर राष्ट्र को कैसे परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्त किया जाये, यह र्निदेश लेकर अपना अनुष्ठान यथावत् चलाते हुए उन्होंने पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश किया। आगरा में सैनिक समाचार पत्र के कार्यवाहक संपादक के रूप में श्रीकृष्णदत्त पालीवाल जी ने उन्हें अपना सहायक बनाया। बाबू गुलाब राय व पालीवाल जी से सीख लेते हुए उन्होंने “अखण्ड ज्योति” नामक पत्रिका का पहला अंक 1938 की वसंत पंचमी पर प्रकाशित किया । हाथ से बने कागज पर पैर से चलने वाली मशीन से छापकर अखण्ड ज्योति पत्रिका का शुभारंभ किया, जो पहले तो दो सौ पचास पत्रिका के रूप में निकली, किन्तु आज दस लाख से भी अधिक संख्या में विभिन्न भाषाओं में छपती व करोड़ से अधिक व्यक्तियों द्वारा पढ़ी जाती है। आसनसोल जेल में वे पं.जवाहरलाल नेहरू की माता श्रीमती स्वरूपरानी नेहरू, श्री रफी अहमद किदवई, महामना मदनमोहन मालवीय जी, देवदास गाँधी जैसी हस्तियों के साथ रहे व वहाँ से एक मूलमंत्र सीखा जो मालवीय जी ने दिया था कि जन-जन की साझेदारी बढ़ाने के लिए हर व्यक्ति के अंशदान से, मुट्ठी फण्ड से रचनात्मक प्रवृत्तियाँ चलाना। यही मंत्र आगे चलकर एक घंटा समयदान, बीस पैसा नित्य या एक दिन की आय एक माह में तथा एक मुट्ठी अन्न रोज डालने के माध्यम से लाखों-करोड़ों की भागीदारी वाला गायत्री परिवार बनता चला गया, जिसका आधार था - प्रत्येक व्यक्ति की यज्ञीय भावना का उसमें समावेश। गायत्री परिवार आज विश्व भर में गायत्री मंत्र की शक्ति का प्रचार-प्रसार कर रहा है। परम पूज्य गुरुदेव पं.श्रीराम शर्मा आचार्य को एक ऐसी ही सत्ता के रूप में देखा जा सकता है, जो युगों-युगों में गुरु एवं अवतारी सत्ता दोनों ही रूपों में हम सबके बीच प्रकट हुई। गुरु जी की आत्मा 2 जून 1990 को शरीर त्याग कर परमात्मा में विलीन हो गयी।

morari bapu


मोरारी बापू
मोरारी बापू
मोरारी बापू का जन्म 25 सितम्बर, 1946 के दिन महुआ के समीप तलगारजा (सौराष्ट्र) में वैष्णव परिवार में हुआ। पिता प्रभुदास हरियाणी के बजाय दादाजी त्रिभुवनदास का रामायण के प्रति असीम प्रेम था। तलगारजा से महुआ वे पैदल विद्या अर्जन के लिए जाया करते थे। 5 मील के इस रास्ते में उन्हें दादाजी द्वारा बताई गई रामायण की 5 चौपाइयाँ प्रतिदिन याद करना पड़ती थीं। इस नियम के चलते उन्हें धीरे-धीरे समूची रामायण कंठस्थ हो गई। दादाजी को ही बापू ने अपना गुरु मान लिया था। 14 वर्ष की आयु में बापू ने पहली बार तलगारजा में चैत्रमास 1960 में एक महीने तक रामायण कथा का पाठ किया। विद्यार्थी जीवन में उनका मन अभ्यास में कम, रामकथा में अधिक रमने लगा था। बाद में वे महुआ के उसी प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक बने, जहाँ वे बचपन में विद्यार्जन किया करते थे, लेकिन बाद में उन्हें अध्यापन कार्य छोड़ना पड़ा, क्योंकि रामायण पाठ में वे इतना डूब चुके थे कि समय मिलना कठिन था। महुआ से निकलने के बाद 1966 में मोरारी बापू ने 9 दिन की रामकथा की शुरुआत नागबाई के पवित्र स्थल गाँठिया में रामफलकदासजी जैसे भिक्षा माँगने वाले संत के साथ की। उन दिनों बापू केवल सुबह कथा का पाठ करते थे और दोपहर में भोजन की व्यवस्था में स्वयं जुट जाते। ह्वदय के मर्म तक पहुँचा देने वाली रामकथा ने आज बापू को दूसरे संतों से विलग रखा हुआ है। मोरारी बापू का विवाह सावित्रीदेवी से हुआ। उनके चार बच्चों में तीन बेटियाँ और एक बेटा है। पहले वे परिवार के पोषण के लिए रामकथा से आने वाले दान को स्वीकार कर लेते थे, लेकिन जब यह धन बहुत अधिक आने लगा तो 1977 से प्रण ले लिया कि वे कोई दान स्वीकार नहीं करेंगे। इसी प्रण को वे आज तक निभा रहे हैं। मोरारी बापू दर्शन के प्रदर्शन से प्रदर्शन के दर्शन से काफी दूर हैं। कथा करते समय वे केवल एक समय भोजन करते हैं। उन्हें गन्ने का रस और बाजरे की रोटी काफी पसंद है। सर्वधर्म सम्मान की लीक पर चलने वाले मोरारी बापू की इच्छा रहती है कि कथा के दौरान वे एक बार का भोजन किसी दलित के घर जाकर करें और कई मौकों पर उन्होंने ऐसा किया भी है। बापू ने जब महुआ में स्वयं की ओर से 1008 राम पारायण का पाठ कराया तो पूर्णाहुति के समय हरिजन भाइयों से आग्रह किया कि वे नि:संकोच मंच पर आएँ और रामायण की आरती उतारें। तब डेढ़ लाख लोगों की धर्मभीरु भीड़ में से कुछ लोगों ने इसका विरोध भी किया और कुछ संत तो चले भी गए, लेकिन बापू ने हरिजनों से ही आरती उतरवाई। सौराष्ट्र के ही एक गाँव में बापू ने हरिजनों और मुसलमानों का मेहमान बनकर रामकथा का पाठ किया। वे यह बताना चाहते थे कि रामकथा के हकदार मुसलमान और हरिजन भी हैं। बापू की नौ दिवसीय रामकथा का उद्देश्य है- धर्म का उत्थान, उसके द्वारा समाज की उन्नति और भारत की गौरवशाली संस्कृति के प्रति लोगों के भीतर ज्योति जलाने की तीव्र इच्छा। मोरारी बापू के कंधे पर रहने वाली 'काली कमली' (शॉल) के विषय में अनेकानेक धारणाएँ प्रचलित हैं। एक धारणा यह है कि काली कमली स्वयं हनुमानजी ने प्रकट होकर प्रदान की और कुछ लोगों का मानना है कि यह काली कमली उन्हें जूनागढ़ के किसी संत ने दी, लेकिन मोरारी बापू इन मतों के बारे में अपने विचार प्रकट करते हुए कहते हैं कि काली कमली के पीछे कोई रहस्य नहीं है और न ही कोई चमत्कार। मुझे बचपन से काले रंग के प्रति विशेष लगाव रहा है और यह मुझे अच्छी लगती है, सो इसे मैं कंधे पर डाले रखता हूँ। किसी भी धार्मिक और राजनीतिक विवादों से दूर रहने वाले मोरारी बापू को अंबानी परिवार में विशेष सम्मान दिया जाता है। स्व. धीरूभाई अंबानी ने जब जामनगर के पास खावड़ी नामक स्थान पर रिलायंस की फैक्टरी का शुभारंभ किया तो उस मौके पर मोरारी बापू की कथा का पाठ किया था। तब उन्होंने धीरूभाई से पूछा कि लोग इतनी दूर से यहाँ काम करने आएँगे तो उनके भोजन का क्या होगा? बापू की इच्छा थी कि अंबानी परिवार अपने कर्मचारियों को एक समय का भोजन दे और तभी से रिलायंस में एक वक्त का भोजन दिए जाने की शुरुआत हुई। यह परंपरा अब तक कायम है। मोरारी बापू अपनी कथा में शेरो-शायरी का भरपूर उपयोग करते हैं, ताकि उनकी बात आसानी से लोग समझ सकें। वे कभी भी अपने विचारों को नहीं थोपते और धरती पर मनुष्यता कायम रहे, इसका प्रयास करते रहते हैं। उनकी इच्छा थी कि पाकिस्तान जाकर रामकथा का पाठ करें, लेकिन वीजा और सुरक्षा कारणों से ऐसा संभव नहीं हो पा रहा है। आज न जाने कितने लोग हैं, जो बापू के ऐसे भक्त हो गए कि उनके पीछे-पीछे हर कथा में पहुँच जाते हैं और रामकथा में गोते लगाते रहते हैं। आज के दौर में जिस सच्चे पथ-प्रदर्शक की जरूरत महसूस‍ की जा रही है, उसमें सबसे पहले मोरारी बापू का नाम ही जुबाँ पर आता है, जो सामाजिक मूल्यों के साथ-साथ भारतीय संस्कृति का अलख जगाए हुए हैं।

maa anandmayi


माँ आनंदमयी माँ आनंदमयी
माँ आनंदमयी का जन्म एक बंगाली परिवार में 30 अप्रैल, 1896 को त्रिपुरा के खेड़ा नामक एक छोटे से गाँव में हुआ था जो कि बंगलागॉदेश में स्थित है। बचपन से ये संतपुरुषों कों पसंद करती थीं। केवल 12 वर्ष की आयु में ही इनका विवाह भोलानाथ के साथ हो गया जो कि पुलिस विभाग में कार्य करते थे। शादी के बाद इनका समय बड़ी कठिनाईयों से गुजारा चला। लेकिन स्वंय को इन्होंने दृढ़निश्चयी बनाए रखा। इस दौरान इन्होंने अपने आपको कृष्ण की भक्ति में लीन करके धीरे धीरे अपने अंदर दैवीय स्वरुप को विकसित किया। इन्होंने अपना पहला धार्मिक प्रवचन 26 वर्ष की आयु में दिया। जैसे जैसे समय बीतता गया इनकी लोकप्रियता बढ़ने लगी दूर दूर से लोग इनके प्रवचन सुनने को आने लगे।अपने इस असाधारण जीवन में इन्होंने देश के कई हिस्सों की यात्राएं की तथा कई प्रभावशाली व्यक्तियों के संपर्क में आईं जिनमें से महात्मा गाँधी एक थे, जिनसे उनका आत्मीय रिश्ता बन चुका था और ये उनके पिता स्वरूप से प्रभावित थीं। माँ आनंदमयी का स्वर्गवास 1983 में हो गया।
माँ आनंदमयी पर लेख नारियाँ अपने मृदु, भावमय एवं स्नेहिल हृदय के कारण, अपनी त्यागशीलता या समर्पण-भावना के कारण आत्मोन्नति या ईश्वर-साक्षात्कार के क्षेत्र में आसानी से और सचमुच ही आगे बढ सकती है, इसमें कोई संदेह नहीं। परंतु शर्त यह है कि उन्हें अवसर मिलना चाहिए और उस अवसर का अधिकाधिक सदुपयोग किया जाय इसके लिए पथप्रदर्शन मिलना चाहिए। अतीत काल में झाँकते है तो भारतवर्ष में शबरी, गार्गी, मैत्रेयी, जनाबाई और मीरां जैसी विदुषी नारीयाँ दिखाई देती है। वर्तमानकाल में भी ऐसी ज्ञानी, योगी या भक्त नारियाँ है और हो रही है यह इस देश का परम भाग्य है । साधना की उच्च अवस्था प्राप्त सभी नारियाँ प्रसिद्ध नहीं होती । कतिपय अज्ञात अवस्था में भी रहती हैं फिर भी भारत के आध्यात्मिक गगन में जो इनेगुने, कतिपय असाधारण आकर्षक आभावाले नक्षत्रों का उदय हुआ है और जो अपने पावन प्रकाश से पृथ्वी को प्रकाशित करते है, उनमें माँ आनंदमयी का स्थान विशेष उल्लेखनीय एवं निराला है। प्रकाश के पथ में अभिरुचि रखनेवाले लोगोंने उनका नाम अवश्य सुना होगा। माँ आनंदमयी का जन्म बंगाल में हुआ था परंतु उनका कार्यक्षेत्र केवल बंगाल तक ही सीमित नहीं है । वे बंगाल की नहीं अपितु भारत की हैं। विशाल अर्थ में कहा जाये तो वे समस्त संसार की हो गई है। भारत के विभिन्न प्रदेशों में एवं भारत के बाहर विदेशो में भी उनके असंख्य प्रसंशक और अनुयायी है। कई साधक उनकी ओर आदर से देखते रहते है। वे ज्यादातर विचरण करती रहती है। उनका नाम भी सूचक है, नाम के अर्थानुसार वे सचमुच आनंदमयी है। उनके मुख पर अतीन्द्रिय अवस्था का आनंद छलकता हुआ दिख पड़ता है। मानो आनंद की प्रतिमूर्ति सामने ही बैठी हो ऐसा प्रतीत होता है। वही अलौकिक, विशुद्ध आनंद उनके नयन, वाणी एवं मुख से सहज ही निःसृत होता रहता है। उसे देख उनका नाम सचमुच सार्थक हो ऐसा लगता है। आध्यात्मिक साधना की उच्चोच्च अवस्था प्राप्त होने पर भी माँ आनंदमयी अत्याधिक सरल, निश्छल एवं विनम्र है । उम्र बडी होने पर भी उनका हृदय छोटी बाला की भाँति सरल है । श्वेत वस्त्र, लंबे-लंबे काले-काले बाल, मस्तक पर जटा, गौर वर्ण लेकिन शरीर थोडा स्थूल दिखता है । उनके निकट बैठना यह जीवन का एक अविस्मरणीय अनुपम सौभाग्य है। उनका व्यक्तित्व आकर्षक एवं प्रभावोत्पादक होने के कारण असंख्य लोग उनके इर्द गिर्द इक्ट्ठे होते है। वे पढ़ी लिखी नहीं है लेकिन आत्मज्ञानी है और साधना के मार्ग में तो आंतरिक ज्ञान, अनुभवजन्य ज्ञान ही महत्वपूर्ण होता है, इसमें क्या शक है ? ऐसा ज्ञान आवश्यक एवं अमूल्य माना जाता है । उनके ज्ञानालोक से प्रेरित व प्रभावित होकर बडे-बडे पंडित, प्रोफेसर एवं साक्षर उनके सत्संग एवं पथप्रदर्शन से लाभान्वित होते है। माँ आनंदमयी ने गृहस्थाश्रम में रहकर भी आत्मविकास पर ही जोर दिया और यही कारण है कि उन्होंने अपने पति को भी साधनापरायण बनाया, उनके हृदय को जीत लिया। जब पति का देहांत हो गया तो उनके सभी लौकिक बंधन टूट गये और वे अकेले ही विचरण करने लगी। सादगी, स्नेह तथा अपरिग्रह की प्रतिमूर्ति समान माँ आनंदमयी भारत के संतो में महत्वपूर्ण मूर्धन्य स्थान रखते हैं। नारी होने से उनका मूल्य और भी बढ़ जाता है। नारियाँ आत्मविकास की अधिकारिणी नहीं है, आत्मिक क्षेत्र में उनका कोई योगदान नहीं है ऐसा मानने वाले स्त्री-पुरुषों के लिए उनका जीवन एक प्रेरणा-स्त्रोत के समान है । मां आनंदमयी अपने जीवन द्वारा सिद्ध करती है कि आत्मिक मार्ग में नारी आगे बढ़ सकती है, इतना ही नहीं, वे सर्वोच्च पद पर आसीन हो सकती है। यों तो वे योगमार्ग की उपासिका है पर उनका हृदय भक्त का है और इसी से भजनकीर्तन में उनकी विशेष रुचि है। नाम संकीर्तन उनका प्रिय विषय है । संसार के विषय उन्हें लुभा नहीं सकते । उनका अंतर कमल की भाँति अलिप्त रहता है । भोग विलास के वातावरण में रहने पर भी त्याग के आदर्श से वे वंचित नहीं है । सन 1956 के जून महिने की बात है । माँ आनंदमयी उस समय सोलन स्टेट के राजा के निमंत्रण से सीमला हिल्स के प्रसिद्ध स्थान सोलन में पधारी थी । इस बीच एक बार रात को प्रायः दस बजे उनके पास एक मध्यम वर्ग का आदमी आया और उसने कहा, ‘माताजी, आपके लिए यह साड़ी लाया हूँ।’ माताजी कमरे में चहलकदमी कर रही थी, रुक गई और बोली, ‘साड़ी लाये हो ? मेरे पास तो है । अतिरिक्त लेके क्या करूँ?’ ‘साड़ी तो आपके पास होगी ही। आपको भला किस चीज की कमी है ? मैं तो यह प्रेम से लाया हूँ । स्वीकारोगी तो मुझे खुशी होगी।’ इतना बोलते हुए उस सज्जन की आँखे गिली हो गई । वे ज्यादा बोल न सके। माताजी का दिल पिघल गया। उन्होंने वह श्वेत साड़ी ले ली। अंदर के कमरे में जाकर उन्होंने वह साड़ी पहन ली और बाहर आई। उनके हाथ में पहले पहनी हुई साड़ी थी। उसे अर्पण करते हुए कहने लगी, ‘यह साड़ी तुम ले लो। जरुरत से ज्यादा साड़ियाँ इकठ्ठी करके मुझे क्या करना है ? आवश्यकता पड़ने पर परमात्मा देता है।’ उस सज्जन ने साड़ी ले ली, यूँ कहो उसे लेनी पड़ी । प्रसंग छोटा था मगर उसका संदेश बड़ा था। इस घटना से माँ आनंदमयी की त्याग-भावना पर प्रकाश पड़ता है। माँ आनंदमयी प्रवचन नहीं करती । प्रश्नों के उत्तर देती है । मीतभाषिणी होकर अपनी उपस्थिति से ही शांति प्रदान करती है, प्रेरणा व पथप्रदर्शन देती है । उनका शांत समागम भी जीवन का पाथेय बन जाता है और जीवन में क्रांति पैदा कर देता है । उनकी आध्यात्मिक प्रसंग अनेकों के लिए आशीर्वाद समान है । शांत रहकर भी अत्यधिक महत्वपूर्ण काम करती है । भारत के आध्यात्मिक इतिहास में वे अमर हैं और रहेंगी ।

dalai lama


दलाई लामा
तेनजिन ग्यात्सो यानि चौदहवें दलाई लामा तिब्बत के राष्ट्राध्यक्ष और आध्यात्मिक गुरू हैं। उनका जन्म 6 जुलाई, 1935 को उत्तर-पूर्वी तिब्बत के ताकस्तेर क्षेत्र में रहने वाले येओमान परिवार में हुआ था। दो वर्ष की अवस्था में बालक ल्हामों थोंडुप की पहचान 13 वें दलाई लामा थुबटेन ग्यात्सो के अवतार के रूप में की गई। दलाई लामा एक मंगोलियाई पदवी है जिसका मतलब होता है ज्ञान का महासागर और दलाई लामा के वंशज करूणा, अवलोकेतेश्वर के बुद्ध के गुणों के साक्षात रूप माने जाते हैं। बोधिसत्व ऐसे ज्ञानी लोग होते हैं जिन्होंने अपने निर्वाण को टाल दिया हो और मानवता की रक्षा के लिए पुनर्जन्म लेने का निर्णय लिया हो। उन्हें सम्मान से परमपावन की कहा जाता है। भारत में जैसे श्रीराम और श्रीकृष्ण को भगवान विष्णु के अवतार माना जाता है। उसी प्रकार तिब्बत में दलाई लामा को अवलोकितेश्वर भगवान बुद्ध का अवतार माना जाता है। मान्यता है कि भगवान बुद्ध के बाद वर्तमान दलाई लामा चौहत्तरवें बुद्धावतार और चौदहवें 'दलाई लामा' हैं। प्रथम दलाई लामा का जन्म सन्‌ 1351 में हुआ था। तेरहवें दलाई लामा का देहावसान 1933 में हुआ और उनका ही अवतरण या पुनर्जन्म आमदो प्रांत में वर्तमान चौदहवें दलाई लामा के रूप में हुआ है। तिब्बत बौद्ध-धर्म कर्म-विपाक सिद्धांत को मानता है। सामान्य मनुष्यों को उनके इस जन्म के कर्मों के अनुसार ही मृत्यु के बाद दूसरा जन्म मिलता है। किंतु 'दलाई लामा' अपने भावी जन्म के बारे में स्वेच्छा से निर्णय कर सकते हैं। वे लोक कल्याण के लिए जन्म लेते हैं। दलाई लामा के स्वर्गवास के लगभग दो साल के बाद इसकी खोज की जाती है कि स्वर्गवासी दलाई लामा का पुनर्जन्म कहाँ हुआ है। इसके लिए कुछ संकेत तो स्वयं दलाई लामा अपनी मृत्यु के पूर्व अपने सहयोगियों के देते हैं जिसके आधार पर दलाई लामा के नवातार की खोज की जाती है। वर्तमान चौदहवें दलाई लामा की भी इसी प्रकार खोज हुई थी। उनका बचपन का नाम ल्हामों थोंडुप था। जिसका तिब्बती में अर्थ होता है मनोकामना पूर्ण करने वाली माँ। दलाई लामा की खोज के बाद उन्हें ल्हासा में पोटाला महल में लाकर बाकायदा बौद्ध धर्म-विचार की शिक्षा दी गई। चिंतन, अध्ययन, स्वाध्याय, योगासन, ध्यान, धारणा आदि में निष्णात होना और तत्वज्ञान में शास्त्रार्थ में प्रवीण होना भी अनिवार्यता है। वर्षों की साधना और तपस्या के बाद उन्हें 'दलाई लामा' के पद पर विधिवत अधिष्ठित किया गया। तिब्बत सैकड़ों सालों तक स्वतंत्र देश रहा। तिब्बत के प्रथम राजा भारत के मगध देश के एक राजकुमार थे। कुछ शताब्दियों तक वहाँ राजतंत्र रहा। यह दलाई लामा का सरल व्यक्तित्व ही है कि वह अपने को तिब्बत, गेलुग परिवार या बौद्ध धर्म तक सीमित न रखकर संपूर्ण विश्व के नागरिक बन सके। 1949 में चीन द्वारा तिब्बत पर हुए हमले के बाद 1959 में नेहरू जी की सहायता से दलाई लामा और लाखों शरणार्थियों ने भारत आकर तिब्बत की निर्वासित सरकार का गठन किया। तब से यह सरकार धर्मशाला (हिमाचल प्रदेश) में ही स्थापित है। यह दलाई लामा का नेतृत्व ही है जिसने तिब्बत में चीनी दमन के ख़िलाफ़ चल रहे आन्दोलन को हिंसक नहीं होने दिया है। चीनी कब्जे में तिब्बत में जनता की खराब स्थिति का शांतिपूर्ण हल ढूँढने के लिए दलाई लामा ने अस्सी के दशक में एक शांति योजना भी प्रस्तुत की। 1989 में दलाई लामा को शान्ति का नोबेल पुरस्कार मिला और चीन की धमकियों की परवाह किए बिना अनेकों राष्ट्रों ने उन्हें अपने देश के विशिष्ट नागरिक का दर्जा दिया है। उनको अनेकों सम्मान एवं बीसिओं डॉक्टरेट उपाधियां भी मिल चुकी हैं । भारत व अमेरिका के अलावा भी अनेकों विश्व विद्यालय उन्हें प्रवचन के लिए बुलाते रहते हैं। अपनी शांत मुस्कान के लिए प्रसिद्व दलाई लामा पचास से अधिक पुस्तकों के लेखक भी हैं। तिब्बत में शिक्षा परमपावन ने अपनी मठवासीय शिक्षा छह वर्ष की अवस्था में प्रारंभ की। 23 वर्ष की अवस्था में वर्ष 1959 के वार्षिक मोनलम, प्रार्थनाद्ध उत्सव के दौरान उन्होंने जोखांग मंदिर, ल्हासा में अपनी फाइनल परीक्षा दी। उन्होंने यह परीक्षा ऑनर्स के साथ पास की और उन्हें सर्वोच्च गेशे डिग्री ल्हारम्पा, बौद्ध दर्शन में पी. एच. डी. प्रदान की गई। नेतृत्व का दायित्व वर्ष 1949 में तिब्बत पर चीन के हमले के बाद परमपावन दलाई लामा से कहा गया कि वह पूर्ण राजनीतिक सत्ता अपने हाथ में ले लें। 1949 में वह माओ जेडांग, डेंग जियोपिंग जैसे कई चीनी नेताओं से बातचीत करने के लिए बीजिंग भी गए। लेकिन आखिरकार ल्हासा में चीनी सेनाओं द्वारा तिब्बती राष्ट्रीय आंदोलन को बेरहमी से कुचले जाने के बाद वह निर्वासन में जाने को मजबूर हो गए। इसके बाद से ही वह उत्तर भारत के शहर धर्मशाला में रह रहे हैं जो केंद्रीय तिब्बती प्रशासन का मुख्यालय है। तिब्बत पर चीन के हमले के बाद परमपावन दलाई लामा ने संयुक्त राष्ट्र से तिब्बत मुद्दे को सुलझाने की अपील की है। vin
ay kumar jain

swami ramdev


स्वामी रामदेव हर मर्ज की दवा : स्वामी रामदेव both; text-align: center;">
भारत के सबसे चर्चित लोगों में से एक... स्वामी रामदेव, अन्तर्राष्ट्रीय योग गुरू हैं। गज़ब की ऊर्जा और आत्म-विश्वास लिए, वह एक तेज-तर्रार सन्त हैं। साधारण परिवार में जन्में स्वामी रामदेव, आज विश्व-प्रसिद्ध व्यक्ति हैं। असल में वह मात्र एक व्यक्ति नहीं, बल्कि एक विचार हैं। ऐसा विचार, जो कभी महात्मा गांधी, सुभाषचन्द्र बोस और चन्द्रशेखर जैसे महापुरूषों ने, स्वतंत्र भारत के लिए देखा था। विचार.. देश को स्वालम्बी, स्वस्थ, मजबूत और विकसित राष्ट्र बनाने का। ताकि हम अपनी महान वैदिक संस्कृति और ज्ञान के बल पर विश्वगुरू बन सके। स्वामी रामदेव जी का जन्म हरियाणा के महेन्द्रगढ़ जनपद में सैयद अलीपुर गांव में हुआ था। 25 दिसंबर,1965 को श्रीयुत राम निवास यादव के साधारण परिवार में जन्में, इस बालक का नाम रामकृष्ण रखा गया। आंठवी कक्षा के बाद वह पक्षाघात से ग्रसित हो गये। योगासनों के निरंतर अभ्यास व जड़ी- बूटियों से निर्मित औषधियों के अद्भुत प्रभाव से वह जल्द स्वस्थ्य हो गये। आगे की पढ़ाई के लिये माता पिता ने उन्हें खानपुर के गुरुकुल में भेज दिया। जहां स्वामी बल्देवाचार्य जी ने रामकृष्ण को शिक्षा दी। उन्होंने संस्कृत में पाणिनी की अष्टाध्यायी सहित वेद व उपनिषद आदि सभी ग्रन्थ मात्र डेढ़ वर्ष के अल्पकाल में कण्ठस्थ कर लिये। युवास्था में ही सन्यासी हो गये और गुरुओं ने दीक्षा के बाद उन्हें नया नाम दिया आचार्य रामदेव । रामदेव जी ने सन् 1995 से योग को लोकप्रिय और सर्वसुलभ बनाने के लिये अथक परिश्रम करना आरम्भ किया। उन्होंने आचार्य करमवीर के साथ मिलकर दिव्य मन्दिर ट्रस्ट की स्थापना की। उन्होंने पतंजलि योगपीठ ट्रस्ट की भी स्थापना की। आज यहां असाध्य रोगों से लड़ने के लिए शोध हो रहे हैं। भारत को पुन: विश्वगुरू स्थापित करने का प्रयास चल रहा है। स्वामी जी सरल विधियां बताकर योगासन और प्राणायम की ख्याति को बढ़ा रहे हैं। योग के माध्यम से वह निराश लोगों के जीवन में बदलाव ला रहे हैं। स्वामी जी योग और प्राणायम के अलावा गौरवमयी भारतीय संस्कृति के प्रचारक भी हैं। भारतीय संस्कृति और गौरव को चोट पहुंचाने वाले ठेकेदारों को हमेशा उन्होंने धूल चटाई है। पेप्सी-कोला, ऐलोपैथी दवाई कंपनियों और वृन्दा करात जैसे कई लोगों के खिलाफ उनका पोल-खोल कार्यक्रम आज भी जारी है। कुतर्कों की नींव पर जनविरोधी कार्यों को सही ठहराने वाले लोग, अब बाबा से डरने लगे हैं। हर विषय पर चर्चा करने से पहले उसके तथ्य और आंकड़ों की पूरी लिस्ट उनके पास होती है। वह भगतसिंह और राजगुरू की ही तरह क्रांतिकारी हैं और देश की अस्मिता और स्वाभिमान के लिए उतने ही दिवाने। देश के मामले में ....नो इफ नो बट...केवल बाबा का हठ..... हठ भारत को उसका गौरव वापस दिलाने का ... संकल्प इतना मजबूत कि उनके आगे इण्लैंड की रानी को भी झुकना पड़ा। बाबा की झोली में बीमारी का सरल उपाय है। निरोगी रहना है तो योग करो...इतना ही नहीं, उन्हें तो राष्ट्र को लग रहे, रोगों से भी निपटना है। देश को भ्रष्ट्राचार, तस्करी, नकली नोट की बीमारी खा रही है.... इलाज है ना बाबा के पास ....स्वामी जी कहते हैं कि -देश की अर्थव्यवस्था के लिए खतरा बन रहे कालाधन, भ्रष्टाचार तथा नकली नोटों की तस्करी को रोकने के लिए बड़े नोटों की छपाई तुरंत बंद करके छोटे नोटों की छपाई करनी चाहिए। भ्रष्टाचार के लिए छोटे नोट देना एक समस्या बन सकता है क्योंकि उनका लेन-देन करना बहुत ही कठिन होगा।

सेक्‍स नैतिक या अनैतिक- osho


इनमें निश्‍चित संबंध है; संबंध बहुत सामान्‍य है। सेक्‍स का चरमोत्कर्ष और हंसी एक ही ढंग से होता है; उनकी प्रक्रिया एक जैसी है। सेक्‍स के चरमोत्कर्ष में भी तुम तनाव के शिखर तक जाते हो। तुम विस्‍फोट के करीब और करीब आ रहे हो। और तब शिखर पर अचानक चरम सुख घटता है। तनाव के पास शिखर पर अचानक सब कुछ शिथिल हो जाता है। तनाव के शिखर और शिथिलता के बीच इतना बड़ा विरोध है कि तुम्‍हें ऐसा लगता है कि तुम शांत, स्‍थिर सागर में गिर गये—गहन विश्रांति, सधन समर्पण। यही कारण है कि कभी भी किसी की मृत्‍यु सेक्‍स क्रिया के दौरान हार्ट अटेक से नहीं हुई। यह आश्‍चर्यजनक है। क्‍योंकि सेक्‍स क्रिया श्रमसाध्‍य कार्य है। यह महान योग है। लेकिन कभी कोई नहीं मरा इसका सामान्‍य सा कारण है कि यह गहन विश्रांति लाता है। सच तो यह है कि कार्डियोलॉजिस्‍ट और हार्ट स्‍पेशलिस्‍ट तो हार्ट के मरीजों को सेक्‍स औषधि की तरह सिफारिश करने लगे है। सेक्‍स उनके लिए बहुत मददगार हो सकता है। यह तनाव को विश्रांत करता है। और जब तनाव चला जाता है, तुम्‍हारा हार्ट अधिक प्राकृतिक ढंग से कार्य करने लगता है। यही प्रक्रिया हंसी के साथ भी है: यह भी तुम्‍हारे भीतर का निर्माण करता है। एक निश्‍चित कहानी और तुम सतत उपेक्षा किये चले जाते हो। कि कुछ होगा। और जब सचमुच कुछ होता है वह इतना अनउपेक्षित होता है कि वह तनाव को मुक्‍त कर देता है। वह होना तार्किक नहीं है। हंसी के बारे में यह बहुत महत्‍वपूर्ण बात समझना आवश्‍यक है। यह होना बहुत मजाकिया होना चाहिए, इसे निश्‍चित हास्‍यास्‍पद होना चाहिये। यदि तुम इसका तार्किक ढंग से निष्‍कर्ष निकाल सको, तब वहां हंसी नहीं होगी। एक और अर्थ में हंसी और सेक्‍स मन में गहरे से जुड़े है। तुम्‍हारी सेक्‍स की इंद्री तुम्‍हारे सेक्‍स का बाहरी हिस्‍सा है। असल में सेक्‍स वही नहीं है। सेक्‍स दिमाग के किसी केंद्र पर है। इसलिए देर-सबेर मानव इस पुराने तरह के सेक्‍स से मुक्‍त हो जायेगा। यह सचमुच हास्‍यास्‍पद है। यही कारण है कि लोग सेक्‍स अंधेरे में, रात के कंबल की ओट में करते है। यह इतनी बेतुकी क्रिया है कि यदि तुम स्‍वयं अपने को सेक्‍स क्रिया में रत देखो, तुम फिर इसके बारे में कभी नहीं सोचोगे। इसलिए लोग छुपाते है। वे अपने दरवाजे बंद कर लेत है। दरवाज़ों पर ताले लगा लेते है। विशेष रूप से वे बच्‍चों से बहुत डरते है। क्‍योंकि वे इस हास्‍यास्‍पद स्‍थिति को तत्‍काल देख लेते हे। तुम क्‍या कर रहे हो। डैडी आप क्‍या कर रहे थे? क्‍या आप पागल हो गये है? और यह पागलपन लगता है। जैसे कि मिरगी का दौरा पडा हो। सेक्‍स और हंसी के केंद्र दिमाग में बहुत पास-पास है, इसलिए कभी-कभी वे एक दूसरे को ढाँक सकते है। इसलिए जब तुम सेक्‍स क्रिया में जाते हो, यदि तुम इसे सचमुच होने दो, स्‍त्री को गुदगुदी होने लगेगी। यह गुदगुदाता है। क्‍योंकि केंद्र बहुत पास है। शिष्टता वश वह हंसेगी नहीं, क्‍योंकि पुरूष को बुरा लग सकता है। लेकिन केंद्र बहुत पास है। और कभी-कभी जब तुम गहरी हंसी में होते हो तो आनंद का वैसा ही विस्‍फोट होगा जैसा सेक्‍स में होता है। वह मात्र सांयोगिक नहीं है। कि कई खूबसूरत चुटकुले सेक्‍स से जुड़े होते है। केंद्र बहुत नजदीक है…..मैं क्‍या कर सकता हूं? ओशो कम, कम, याट अगेन कम सेक्‍स के प्रति ज़ेन नजरिया क्‍या है? ज़ेन का सेक्‍स के प्रति कोई नजरिया नहीं है। और यह ज़ेन की खूबसूरती है। यदि तुम्‍हारा कोई नजरिया होता है इसका मतलब ही होता है कि तुम इस तरह या उस तरह उससे ग्रस्‍त हो। कोई सेक्‍स के विरोध में है—उसका एक तरह का नजरिया है; और कोई सेक्‍स के पक्ष में है—उसका दूसरे तरह का रवैया है। और पक्ष में या विपक्ष में दोनों एक साथ चलते है जैसे कि गाड़ी के दो पहिये। ये शत्रु नहीं है, मित्र है, एक ही व्‍यवसाय के भागीदार। ज़ेन का किसी तरह नजरिया नहीं है। सेक्‍स के प्रति किसी का कोई भी नजरिया क्‍यों होना चाहिए? यही इसकी खूबसूरती है—ज़ेन पूरी तरह से सहज है। पानी पीने के बारे में तुम्‍हारा कोई नजरिया है? भोजन करने के बारे में तुम्‍हारा कोई नजरिया है? राज सोने को लेकर तुम्‍हारा कोई नजरिया है? कोई नजरिया नहीं है। मैं जानता हूं कि पागल लोग है जिनका इन चीजों के बारे में भी नजरिया है, कि पाँच घटों से अधिक नहीं सोना भी एक तरह का पाप है, कुछ मानों आवश्‍यक बुराई, इसलिये किसी को पाँच घंटे से अधिक नहीं सोना चाहिए। या भारत में ऐसे लोग है जो सोचते है कि तीन घंटों से अधिक नहीं सोना चाहिए। कई सदियों से यह बहुत बड़ी दुर्धटना घटी है। लोग सृजनहीन लोगों को पूजते रहे है। और कभी-कभी विकृत चीजों को। तब सोने के प्रति भी तुम्‍हारा नजरिया होगा। ऐसे लोग है जिनका भोजन के प्रति नजरिया है। यह खाओ या वह खाओ, इतना खाओ, इससे अधिक नहीं। वे अपने शरीर की नहीं सुनते है, शरीर भूखा है या नहीं। उनका अपना कोई विचार है जो वे प्रकृति पर थोपते है। ज़ेन का सेक्‍स के बारे में किसी प्रकार का नजरिया नहीं है। जेन बहुत सामान्‍य है, ज़ेन मासूम है। ज़ेन बच्‍चे जैसा है। वह कहाता है कि किसी प्रकार के नज़रिये की जरूरत नहीं है। क्‍यों? क्‍या छींकने को लेकर तुम्‍हारा कोई नजरिया है? छींके या नहीं। यह पाप है या पुण्‍य। तुम्‍हारा कोई नजरिया नहीं है। लेकिन मैंने ऐसा व्‍यक्‍ति देखा है जो छींकने का विरोधी है। और जब कभी वह छींकता है स्‍वयं की रक्षा के लिए तत्‍काल मंत्र जाप करता है। वह एक छोटे से मूर्ख पंथ का हिस्‍सा था। वह संप्रदाय सोचता है जब तुम छिंकते हो तुम्‍हारी आत्‍मा बाहर चली जाती है। छींकने में आत्‍मा बाहर जाती है, और यदि तुम परमात्‍मा को याद नहीं करो तो हो सकता है वापस न आये। यदि तुम छींकते हुए मर जाते हो तो तुम नर्क चले जाओगे। किसी भी चीज के लिए तुम्‍हारा नजरिया हो सकता है। एक बार तुम्‍हारा कोई नजरिया होता है, तुम्‍हारा भोलापन नष्‍ट हो जाता है। और वे नजरिया तुम्‍हारा नियंत्रण करने लगते है। ज़ेन न तो किसी चीज के पक्ष में है न ही किसी के विपक्ष में। ज़ेन के अनुसार जो कुछ सामान्‍य है वह ठीक है। साधारण होना, कुछ नहीं होना, शुन्‍य होना, बगैर किसी अवधारणा के होना, चरित्र के बगैर, चरित्र विहीन…… जब तुम्‍हारे पास कोई चरित्र होता है तुम किसी तरह के मनोरोगी होते हो। चरित्र का मतलब है कि कुछ तुम्‍हारे भीतर पक्‍का हो चुका है। चरित्र का मतलब है तुम्‍हारी अतीत। चरित्र का मतलब है संस्‍कार, परिष्‍कार। जब तुम्‍हारा कोई चरित्र होता है तब तुम इसके कैदी हो जाते हो, तुम अब स्‍वतंत्र नहीं रहे। जब तुम्‍हारे पास चरित्र होता है तब तुम्‍हारे आसपास कवच होता है। तुम स्‍वतंत्र व्‍यक्‍ति नहीं रहे। तुम अपना कैद खाना अपने साथ लेकिन चल रहे हो; यह बहुत सूक्ष्‍म कैद खाना है। सच्‍चा आदमी चरित्र विहीन होगा। जब मैं कहता हूं चरित्र विहीन तब इसका क्‍या मतलब होता है। वह अतीत से मुक्‍त होगा। वह क्षण में व्‍यवहार करेगा। क्षण के अनुसार। सिर्फ वही तात्‍कालिक हो सकता है। वह स्‍मृति ने नहीं देखा कि अब क्‍या करना। एक तरह की स्‍थिति बनी और तुम अपनी स्‍मृति में देख रहे हो—इसका मतलब है कि तुम्‍हारे पास चरित्र है। जब तुम्‍हारे पास कोई चरित्र नहीं होता है तब तुम सिर्फ स्‍थिति को देखते हो और स्‍थिति तय करती है कि क्‍या किया जाना चाहिए। तब यह तात्‍कालिक होता है तब वहां जवाब होगा न कि प्रतिक्रिया। ज़ेन के पास किसी बात के लिए कोई विश्‍वास-प्रक्रिया नहीं है। और इसमे सेक्‍स भी आ जाता है—ज़ेन इसके बारे में कुछ नहीं कहता है। और यह मूलभूत बात होनी चाहिए। समाज ने दमित मन पैदा किया, जीवन निरोधी मन, आनंद का विरोधी। समाज सेक्‍स के बहुत अधिक विरोध में है। समाज सेक्‍स के इतना विरोध में क्‍यों है। क्‍योंकि यदि तुम लोगों को सेक्‍स का मजा लेने दो, तुम उन्‍हें गुलाम नहीं बना सकते। यह असंभव है—एक आनंदित व्‍यक्‍ति गुलाम बनाये जा सकते है। आनंदित व्‍यक्‍ति स्‍वतंत्र व्‍यक्‍ति है; उसके पास अपनी आत्म निर्भयता है। तुम एक आनंदित व्‍यक्‍ति को युद्ध के लिए भरती नहीं कर सकते। वे युद्ध के लिए क्‍यों जायेंगे? लेकिन यदि व्‍यक्‍ति ने अपने सेक्‍स का दामन किया है तो वह युद्ध के लिए तैयार हो जायेगा। वह युद्ध में जाने के लिए तत्‍पर होगा। क्‍योंकि उसने जीवन का आनंद नहीं लिया। वह जीवन का आनंद लेने काबिल नहीं रहा, इसलिए वह सृजन के भी काबिल नहीं रहा। अब वह मात्र एक काम कर सकता है—वह विध्‍वंस कर सकता है। उसकी सारी उर्जा जहर हो गई है। यदि समाज आनंदित होने के पूरी स्‍वतंत्रता देता है, तो कोई भी विध्वंसात्मक नहीं होगा। जो लोग सुंदर ढंग से प्‍यार कर सकते है वे कभी विध्वंसात्मक नहीं हो सकते। और जो लोग सुंदर ढंग से प्रेम कर सकते है और जीवन का आनंद मना सकते हे वे प्रतियोगिक भी नहीं होंगे। सिर्फ प्रेम की मुक्‍ति इस दुनिया में क्रांति ला सकती है। साम्‍यवाद असफल हो गया, तानाशाही असफल हो गया। सभी वाद असफल हो गये क्‍योंकि गहरे में ये सभी सेक्‍स का दमन करते है। इस मामले में उनके बीच कोई फर्क नहीं है—वाशिंगटन और मॉस्को में कोई मतभेद नहीं है। बीजिंग और दिल्‍ली में—कोई मतभेद नहीं है। ये सभी एक बात पर सहमत है—सेक्‍स पर नियंत्रण किया जाना चाहिए। लोगों को सेक्स में सहज आनंद लेने की अनुमति नहीं देते है। सामान्‍यतया समाज सेक्‍स के विरोध में है, तंत्र मानवता की मदद करने के लिए आया है, मानवता को सेक्‍स पुन: देने के लिए। और जब सेक्‍स वापस दिया जायेगा, तब ज़ेन की उत्पती होती है। ज़ेन का कोई नजरिया नहीं है। ज़ेन शुद्ध स्‍वास्‍थ्‍य है। ओशो

osho never born never dai- vinay


ईसा मसीह के पश्‍चात सर्वाधिक विद्रोही व्‍यक्‍ति–ओशो
ईसा मसीह के......सबसे विद्रोही व्‍यक्‍ति--ओशो ‘’भगवान श्री रजनीश ईसा मसीह के बाद सर्वाधिक खतरनाक व्‍यक्‍ति है।‘’ ये भविष्‍यसूचक शब्‍द इस वर्ष के प्रारंभ में कहे थे टॉम राबिन्स ने जो अमरीका के सर्वश्रेष्‍ठ जीवित साहित्‍यिक लेखकों में से एक ‘’गिने जाते है। उस समय उन्‍हें इस बात का पता नहीं था लेकिन भविष्‍य में कुछ ऐसी घटनाएं घटने वाली थीं कि विश्‍व का हर प्रमुख शासक भगवान श्री रजनीश से भयभीत था। क्‍या? भगवान श्री रजनीश कौन है? और वे इतने असामान्‍य रूप से अंतर्राष्ट्रीय विवादास्‍पद व्‍यक्‍ति किस तरह बन गए? वस्‍तुत: उन्‍हें खतरनाक कहने वाले टॉम राबिन्स पहले व्‍यक्‍ति नहीं है। यह ख्‍याति उन्‍हें बहुत पहले छठे दशक में भारतीय पत्रकारों द्वारा प्राप्‍त हुई थी। जब वे विश्‍वविद्यालय में दर्शन के एक प्राध्‍यापक थे और सेक्‍स, धर्म और राजनीति संबंधी अपने क्रांतिकारी और स्‍पष्‍टवादी विचारों से अतिशय रूढ़िवादी भारतीय जनता को क्रुद्ध कर चुके थे। सातवें दशक के उत्‍तरार्ध में पाश्‍चात्‍य पत्रकार उनकी और आकृष्‍ट हुए और उन्‍होंने भी अपने विशेषण जोड़ दिये। लेकिन लगभग निरपवाद रूप से, उनमें से जो भी पूना के उनके आश्रम में गए और उन्‍हें सुना, वे लोग भारतीय समकक्षों से कही अधिक विवेकपूर्ण थे। जब वे पश्‍चिम वापिस लौटे तो ‘’असाधारण’’ ‘’विलक्षण’’ ‘’गहन रूप से प्रभावित करने वाले।‘’ ‘’अत्‍यंत विचलित करने वाले’’ और अत्‍यंत चित्‍ताकर्षक’’ जैसे विशेषण अपने साथ ले गए। पाश्चात्य प्रसार-माध्‍यम के सारे रूप यहां आए, और समीक्षाएं की। 1977 में ‘’वोग’’ पत्रिका की जीन लिएल ने उनके लिए कहा, ‘’वे एक सौम्य,करूण मय और समूचे अखण्‍डित व्‍यक्‍ति…..अत्‍यंत अनुप्राणित, अत्‍यंत सुशिक्षित…ओर विशद व गहन जानकारी रखने वाला ऐसा व्‍यक्‍ति….पहले कभी और कहीं नहीं सुना। जर्मन ‘’कॉस्‍मॉपालिटन’’ मैगजीन की फल्‍रेन्‍स गाल ने उनका वर्णन ‘’करिश्मा पूर्ण’’ कहकर किया, ऐसे जैसे एतिता पेरॅन,मार्टिन लूथर किंग, जॉन एफ. केनेडी और पोप जॉन-तेईसवें। 1979 में दूरदर्शन के निष्ठुर आलोचक अलन विकर ने अपने कार्यक्रम ‘’ विकर्स वलर्ड’’ में कहा: ‘’वे बहुत सुंदर है….बोलते वक्‍त वे बहुत ही प्रभावशाली लगते है।‘’ डच पैनौरमा’’ मैगजीन के मासेंल मियेर, जो 1978 में पूना आए थे। की दृष्‍टि में वे मनोविज्ञान के आचार्य ओर परम बुद्धिमान’’ थे। उन्‍होंने कहा ऐसा व्‍यक्‍ति मैंने सिर्फ किताबों में ही देखा था। वास्‍तविक जीवन में तो देखने की मैं कल्‍पना ही नहीं कर सकता। वे पृथ्‍वी के जीवित चमत्‍कार है।‘’अरगेंटिनिशेस टेगब्‍लाट’’ की मेरीलुइज एलेमन ने 1980 में लिखा। ‘’पूरब तर देशों के लोगों के मन में ‘’भारत’’ अथवा ‘’गुरू’’ शब्‍द सुनते ही बेखटके जो छवि उभरती है, स्‍पष्‍टत: उस सौम्य पवित्र व्‍यक्‍ति नामक लहर पर सवार होना उन्‍होंने स्‍वीकार नहीं किया है, और न ही सर्वज्ञ, करूणा मय सद्गुरू वाली छवि की नकाब उन्‍होंने ओढ़नी चाही है।‘’ रोनाल्‍ड कॉनवे,जो कि ऑस्‍टेलिया में प्राध्‍यापक, लेखक, केथॅलिक तथा वहां के एक अस्‍पताल में वरिष्‍ठ परामर्शक मनोवैज्ञानिक है, 1980 में पूना के आश्रम में आए थे। वे अपनी रिपोर्ट में कहते है। ‘’उनके आस पास कुछ मीटर की दूरी पर होना मात्र कुछ विलक्षण परिणाम लाता है। उसका स्‍त्रोत कुछ भी हो, लेकिन रजनीश में कोई विलक्षण शक्‍ति और चुम्‍बकत्‍व है। जो इतनी स्‍पर्श गोचर है कि महसूस की जा सके……उनको देखकर मुझे लगा कि शायद ईसा मसीह इसी तरह के रहे होंगे। और ‘’लंदन टाइम्‍स’’ के बना्रर्ड लेविन जिन्‍हें रूढ़िवादी सामाजिक समीक्षकों में तीखे वाग बाणों का प्रयोग करने वाले वरिष्‍ठ सदस्‍य कहा जाता है। जब 1980 में रजनीश आश्रम देखने आए तो उनके उद्गार इस प्रकार थे: ‘’उस व्‍यक्‍ति से मैं एकदम सम्‍मोहित हो गया…..ओर उनके आसपास रहनेवाले लोगों से भी। रजनीश एक अनूठे शिक्षक है। और एक असाधारण चुंबक।‘’ जिन लोगों के बहुत संदेह वादी होने की अपेक्षा थी, उनके ये उद्गार देख कर लगता है कि उन तुलनात्‍मक रूप से प्रारंभिक दिनों में भी भगवान मात्र एक अन्‍य मशहूर किये गये पूर्वीय गुरु नहीं थे। जैसा की ‘’एडीलेड (ऑस्टेलिया) सैटरडे रिव्यू में एलन अटकिन्‍सन ने 1अगस्‍त, 1981 के अंक में लिखा, ‘’यह बात साफ है कि रजनीश कोई साधारण आदमी नहीं है। उनका वर्णन इन शब्‍दों में किया जाता है: एक महान आधुनिक आध्‍यात्‍मिक ऋषि; जीसस और बुद्ध की परंपरा के; बुद्धत्‍व को उपल्‍बध सद्गुरू; पूना के झक्‍की संत; वर्तमान समय के प्रसन्‍नचित जॉन द बैपटिस्ट—और उनके विरोधियों के अनुसार वे क्राइस्‍ट-विरोधी, पागल, संसार के सबसे खतरनाक आदमी। विगत दो वर्षों से पश्‍चिम के मनोवैज्ञानिकों, मानसचिकित्सकों, चर्च से संबंधित लोगों, पत्रकारों तथा व्‍यावसायिक संदेह वादियों के मन में उनकी उपस्‍थिति और उनके प्रभाव के कारण कुतूहल पैदा हो गया है।‘’ साढ़े चार साल बाद, सन् 1986 तक, वही कुतूहल जगाने वाली उपस्‍थिति और प्रभाव दुनिया के लगभग हर देश के लिए अपने-अपने कम्‍प्‍यूटरों में भगवान श्री रजनीश के नाम के आगे लाल सावधान चिन्‍ह अंकित कर लेने का कारण बन गया है—‘’राष्‍ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरनाक’’….. सार्वजनिक कल्‍याण की दृष्‍टि से अहित कारक उपस्‍थिति’’……राज्‍य के हितों के लिए बाधा’’…….प्रवेश कदापि न दें।‘’ क्‍यों? उनके साथ जुड़ा ‘’खतरनाक’’ विशेषण केवल उनके विचारों के कारण उन्‍हें दिया गया है। आतंकवादी अथवा किसी संघातक गिरोह के नेता के अर्थों में उनके खतरनाक होने का तो कोई कभी सवाल ही नहीं था। समस्‍त ज्ञात वृतान्‍त के अनुसार वे एक ऐसे व्‍यक्‍ति थे जो कभी अपने घर से बाहर नहीं गए, बल्‍कि प्रवचन देने के अलावा जो वास्‍तव में अपने कमरे तक से बाहर नही गए। और जिन्‍होंने बोलने के अलावा और कुछ भी नहीं किया हे। जिन दो देशों में वे रहे—भारत और अमेरिका—उनमें गहरी छानबीन करने के बावजूद भी जिस व्‍यक्‍ति के ऊपर कोई भी जुर्म कायम नहीं किया जा सका, सिवाय इसके कि उन्‍होंने आप्रवास अधिकारियों को झूठे वक्तव्य दिए है।* फिर जर्मन, स्‍विस, ऑस्‍टेलियन तथा डच सरकारों को1986 में आपातकालीन आदेश क्‍यों पास करने पड़े कि यह व्‍यक्‍ति उनके देश की जमीन पर पाँव तक नहीं रख सकता? इटली ओर स्‍वीडन ने उन्‍हें पर्यटक-वीसा देने से इन्‍कार कर दिया? जब हिथ्रो हवाईअड्डे पर उनका जेट आठ घंटे के लिए उतरा तब इंग्‍लैंड ने उनको ट्रांजिट लाउंज में रात भी रूकने की इजाजत क्‍यों नहीं दी? ग्रीस में जब उन्‍हें चार हफ्ते रूकने की अनुमति थी तब उन्‍हें दो हफ्तों के बाद वहां से अचानक निकाल बाहर क्‍यों कर दिया गया—जबकि इन दो हफ्तों में उन्‍होंने अपने घर के बाहर कदम भी नहीं रखा। जिस जेट प्‍लेन में वे यात्रा कर रहे थे, उसे कनाडा ने ईंधन लेने हेतु पैंतालीस मिनटों के लिए भी क्‍यों नहीं उतरने दिया—ऐसा लिखित गांरटी के बावजूद भी कि वे प्‍लेन के बाहर कदम भी नहीं रखेंगे? सामान्‍यत: सीधे-सादे करीबियन द्वीप-समूहों ने अखबारों द्वारा प्रसारित मान्‍ एक अफवाह की हल्‍की सी भनक पर की वे वहीं जा रहे है, अपने हवाई अड्डों को सतर्क क्‍यों कर दिया कि उनका हवाई जहाज वहां उतरने ने दें? जमाइका ने उन्‍हें दस दिन का वीसा देने के बाद, उनके वहां पहुंचने पर उन्‍हें चौबीस घंटे के भीतर देश छोड़ने का आदेश क्‍यों दे दिया? क्रिश्‍चियन डेमोक्रैटों के एक गुट ने यूरोप की संसद के सामने यह प्रस्‍ताव क्‍यों रखा कि सदस्‍य-देश ऐसे उपास करें जिससे वे ( भगवान श्री रजनीश) कभी भी उन देशों की सीमा में रह न सकें? वेटिकन ने अपने नियंत्रण के अंतर्गत आनेवाले सभी इतालवी समाचार पत्रों से यह निवेदन क्‍यों किया कि वे उनके नाम तक का उल्‍लेख न करें? अमरीका अटर्नी जनरल एड मीज़ ने ऐसा क्‍यों कहा कि वे चाहते है कि ‘’वे( भगवान श्री) भारत वापिस हो और फिर कभी देखने-सुनने में न आएं’’ और वे पश्‍चिम जगत में न रहें इसके लिए अमरीकी सरकार को ब्लैक मेल पर क्‍यों उतरना पड़ा? ऐसी क्‍या बात थी जिससे कि विश्‍व की सर्वाधिक ताकतवर सरकारें एक अकेले आदमी से इतनी भय-भीत हो गई। जिसके पास किसी भी तरह का राजनैतिक पद नहीं था। जो स्‍वयं के सिवाय किसी ओर का प्रतिनिधित्‍व नहीं करता था, और जो बोलने के अतिरिक्‍त और कोई कृत्‍य नहीं करता? यह कौन आदमी था जिसने अपने खिलाफ कम्युनिस्ट, पूंजीवादी, केथॅलिक, फासिस्‍टों को एक अश्रुतपूर्व पवित्र गठबंधन में जोड़ दिया? –सू एपलटन *पीत पत्रकारिता द्वारा उत्‍कंठा पूर्वक प्रसारित की गयी अफ़वाहों के ठीक विपरीत, भगवान श्री रजनीश भारत में कभी किसी प्रकार के आरोप के जुर्म में नहीं थे। अमरीका में, चार वर्ष तक प्रात: प्रत्‍येक सरकारी ऐजेंसी द्वारा चलाई गयी जांच-पड़तालों के बाद, केवल क्षुद्र आरोप जो उन पर लगाये जा सके थे कि अमरीका-आगमन पर उन्‍होंने झूठा वक्‍तव्‍य दिया कि उनका उस देश में स्‍थायी आवास का इरादा नहीं था जबकि वास्‍तव में उनका वैसा इरादा था। और कि उन्‍होंने कूद लोगों को ऐसे विवाहों के आधार पर स्‍थायी आवास के लिए आवेदन करने की प्रेरणा दी जिनके बारे में उन्‍हें पता था कि वे विवाह सही नहीं थे। (और ये सब उस समय जब वे सर्वविदित वे सर्वमान्‍य रूप से मौन में थे…