Monday, June 25, 2012

shreeram sharma


पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य भारत के एक युगदृष्टा मनीषी थे जिन्होने अखिल भारतीय गायत्री परिवार की स्थापना की। उन्होंने अपना जीवन समाज की भलाई तथा सांस्कृतिक व चारित्रिक उत्थान के लिये समर्पित कर दिया। उन्होंने आधुनिक व प्राचीन विज्ञान व धर्म का समन्वय करके आध्यात्मिक नवचेतना को जगाने का कार्य किया ताकि वर्तमान समय की चुनौतियों का सामना किया जा सके। उनका व्यक्तित्व एक साधु पुरुष, आध्यात्म विज्ञानी, योगी, दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक, लेखक, सुधारक, मनीषी व दृष्टा का समन्वित रूप था। पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य का जन्म 20 सितम्बर,1911 (आश्विन कृष्ण त्रयोदशी विक्रमी संवत् 1967) को उत्तर प्रदेश के आगरा जनपद के आंवलखेड़ा गांव में हुआ था। उनका बाल्यकाल गांव में ही बीता। उनके पिता श्री पं.रूपकिशोर जी शर्मा जी जमींदार घराने के थे और दूर-दराज के राजघरानों के राजपुरोहित, उद्भट विद्वान, भगवत् कथाकार थे।
साधना के प्रति उनका झुकाव बचपन में ही दिखाई देने लगा, जब वे अपने सहपाठियों को, छोटे बच्चों को अमराइयों में बिठाकर स्कूली शिक्षा के साथ-साथ सुसंस्कारिता अपनाने वाली आत्मविद्या का शिक्षण दिया करते थे । वह एक बार हिमालय की ओर भाग निकले और बाद में पकडे जाने पर बोले कि हिमालय ही उनका घर है और वहीं वे जा रहे थे । महामना पं.मदनमोहन मालवीय जी ने उन्हें काशी में गायत्री मंत्र की दीक्षा दी थी। पंद्रह वर्ष की आयु में वसंत पंचमी की वेला में सन् 1926 में ही लोगों ने उनके अंदर के अवतारी रूप को पहचान लिया था। उन्हें जाति-पाँति का कोई भेद नहीं था। वह कुष्ठ रोगियों की भी सेवा करते थे। इस महान संत ने नारी शक्ति व बेरोजगार युवाओं के लिए गाँव में ही एक बुनताघर स्थापित किया व अपने पैरों पर खड़ा होना सिखाया। पूज्य गुरुदेव ने युग निर्माण के मिशन को गायत्री परिवार, प्रज्ञा अभियान के माध्यम से आगे बढ़ाया। वह कहते थे कि अपने को अधिक पवित्र और प्रखर बनाने की तपश्चर्या में जुट जाना- जौ की रोटी व छाछ पर निर्वाह कर आत्मानुशासन सीखना । इसी से वह सार्मथ्य विकसित होगी जो विशुद्धतः परमार्थ प्रयोजनों में नियोजित होगी । राष्ट्र के परावलम्बी होने की पीड़ा भी उन्हे उतनी ही सताती थी जितनी कि गुरुसत्ता के आनेदशानुसार तपकर सिद्धियों के उपार्जन की ललक उनके मन में थी । उनके इस असमंजस को गुरुसत्ता ने ताड़कर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के नाते संघर्ष करने का भी संकेत था । 1927 से 1933 तक का उनका समय एक सक्रिय स्वयं सेवक व स्वतंत्रता सेनानी के रूप में बीता। घरवालों के विरोध के बावजूद पैदल लम्बा रास्ता पार कर वे आगरा के उस शिविर में पहुँचे, जहाँ शिक्षण दिया जा रहा था। मित्रों के साथ भूमिगत हो कार्य करते रहे तथा समय आने पर जेल भी गये । उन्हें कई बार जेल हुई । जेल में भी वह निरक्षर साथियों को शिक्षण देकर व स्वयं अँग्रेजी सीखकर लौटे। स्वतंत्रता की लड़ाई के दौरान कुछ उग्र दौर भी आये, जिनमें शहीद भगतसिंह को फाँसी दिये जाने पर फैले जनआक्रोश के समय उन्होंने भी जमकर इसका विरोध दर्ज कराया। नमक आन्दोलन के दौरान वे आततायी शासकों के समक्ष झुके नहीं, आन्दोलन के दौरान फिरंगी उन्हें पीटते रहे, झण्डा छीनने का प्रयास करते रहे लेकिन उन्होंने झण्डा नहीं छोड़ा। उन्होंने मुँह से झण्डा पकड़ लिया, गिर पड़े, बेहोश हो गये लेकिन झण्डा नहीं छोड़ा। उनकी सहनशक्ति देखकर सब आश्चर्यचकित रह गये । उन्हें तब से ही आजादी के मतवाले उन्मत्त श्रीराम मत्त नाम मिला । अभी भी आगरा में उनके साथ रहे व्यक्ति उन्हें मत्त जी नाम से ही जानते हैं । स्वतंत्रता सेनानी के तौर पर मिलने वाली पेंशन को भी उन्होंने प्रधानमंत्री राहत फण्ड को समर्पित कर दिया। 1935 के बाद उनके जीवन का नया दौर शुरू हुआ, जब गुरुसत्ता की प्रेरणा से वे श्री अरविन्द से मिलने पाण्डिचेरी, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगौर से मिलने शांति निकेतन तथा बापू से मिलने साबरमती आश्रम, अहमदाबाद गये। सांस्कृतिक, आध्यात्मिक मंचो पर राष्ट्र को कैसे परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्त किया जाये, यह र्निदेश लेकर अपना अनुष्ठान यथावत् चलाते हुए उन्होंने पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश किया। आगरा में सैनिक समाचार पत्र के कार्यवाहक संपादक के रूप में श्रीकृष्णदत्त पालीवाल जी ने उन्हें अपना सहायक बनाया। बाबू गुलाब राय व पालीवाल जी से सीख लेते हुए उन्होंने “अखण्ड ज्योति” नामक पत्रिका का पहला अंक 1938 की वसंत पंचमी पर प्रकाशित किया । हाथ से बने कागज पर पैर से चलने वाली मशीन से छापकर अखण्ड ज्योति पत्रिका का शुभारंभ किया, जो पहले तो दो सौ पचास पत्रिका के रूप में निकली, किन्तु आज दस लाख से भी अधिक संख्या में विभिन्न भाषाओं में छपती व करोड़ से अधिक व्यक्तियों द्वारा पढ़ी जाती है। आसनसोल जेल में वे पं.जवाहरलाल नेहरू की माता श्रीमती स्वरूपरानी नेहरू, श्री रफी अहमद किदवई, महामना मदनमोहन मालवीय जी, देवदास गाँधी जैसी हस्तियों के साथ रहे व वहाँ से एक मूलमंत्र सीखा जो मालवीय जी ने दिया था कि जन-जन की साझेदारी बढ़ाने के लिए हर व्यक्ति के अंशदान से, मुट्ठी फण्ड से रचनात्मक प्रवृत्तियाँ चलाना। यही मंत्र आगे चलकर एक घंटा समयदान, बीस पैसा नित्य या एक दिन की आय एक माह में तथा एक मुट्ठी अन्न रोज डालने के माध्यम से लाखों-करोड़ों की भागीदारी वाला गायत्री परिवार बनता चला गया, जिसका आधार था - प्रत्येक व्यक्ति की यज्ञीय भावना का उसमें समावेश। गायत्री परिवार आज विश्व भर में गायत्री मंत्र की शक्ति का प्रचार-प्रसार कर रहा है। परम पूज्य गुरुदेव पं.श्रीराम शर्मा आचार्य को एक ऐसी ही सत्ता के रूप में देखा जा सकता है, जो युगों-युगों में गुरु एवं अवतारी सत्ता दोनों ही रूपों में हम सबके बीच प्रकट हुई। गुरु जी की आत्मा 2 जून 1990 को शरीर त्याग कर परमात्मा में विलीन हो गयी।

morari bapu


मोरारी बापू
मोरारी बापू
मोरारी बापू का जन्म 25 सितम्बर, 1946 के दिन महुआ के समीप तलगारजा (सौराष्ट्र) में वैष्णव परिवार में हुआ। पिता प्रभुदास हरियाणी के बजाय दादाजी त्रिभुवनदास का रामायण के प्रति असीम प्रेम था। तलगारजा से महुआ वे पैदल विद्या अर्जन के लिए जाया करते थे। 5 मील के इस रास्ते में उन्हें दादाजी द्वारा बताई गई रामायण की 5 चौपाइयाँ प्रतिदिन याद करना पड़ती थीं। इस नियम के चलते उन्हें धीरे-धीरे समूची रामायण कंठस्थ हो गई। दादाजी को ही बापू ने अपना गुरु मान लिया था। 14 वर्ष की आयु में बापू ने पहली बार तलगारजा में चैत्रमास 1960 में एक महीने तक रामायण कथा का पाठ किया। विद्यार्थी जीवन में उनका मन अभ्यास में कम, रामकथा में अधिक रमने लगा था। बाद में वे महुआ के उसी प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक बने, जहाँ वे बचपन में विद्यार्जन किया करते थे, लेकिन बाद में उन्हें अध्यापन कार्य छोड़ना पड़ा, क्योंकि रामायण पाठ में वे इतना डूब चुके थे कि समय मिलना कठिन था। महुआ से निकलने के बाद 1966 में मोरारी बापू ने 9 दिन की रामकथा की शुरुआत नागबाई के पवित्र स्थल गाँठिया में रामफलकदासजी जैसे भिक्षा माँगने वाले संत के साथ की। उन दिनों बापू केवल सुबह कथा का पाठ करते थे और दोपहर में भोजन की व्यवस्था में स्वयं जुट जाते। ह्वदय के मर्म तक पहुँचा देने वाली रामकथा ने आज बापू को दूसरे संतों से विलग रखा हुआ है। मोरारी बापू का विवाह सावित्रीदेवी से हुआ। उनके चार बच्चों में तीन बेटियाँ और एक बेटा है। पहले वे परिवार के पोषण के लिए रामकथा से आने वाले दान को स्वीकार कर लेते थे, लेकिन जब यह धन बहुत अधिक आने लगा तो 1977 से प्रण ले लिया कि वे कोई दान स्वीकार नहीं करेंगे। इसी प्रण को वे आज तक निभा रहे हैं। मोरारी बापू दर्शन के प्रदर्शन से प्रदर्शन के दर्शन से काफी दूर हैं। कथा करते समय वे केवल एक समय भोजन करते हैं। उन्हें गन्ने का रस और बाजरे की रोटी काफी पसंद है। सर्वधर्म सम्मान की लीक पर चलने वाले मोरारी बापू की इच्छा रहती है कि कथा के दौरान वे एक बार का भोजन किसी दलित के घर जाकर करें और कई मौकों पर उन्होंने ऐसा किया भी है। बापू ने जब महुआ में स्वयं की ओर से 1008 राम पारायण का पाठ कराया तो पूर्णाहुति के समय हरिजन भाइयों से आग्रह किया कि वे नि:संकोच मंच पर आएँ और रामायण की आरती उतारें। तब डेढ़ लाख लोगों की धर्मभीरु भीड़ में से कुछ लोगों ने इसका विरोध भी किया और कुछ संत तो चले भी गए, लेकिन बापू ने हरिजनों से ही आरती उतरवाई। सौराष्ट्र के ही एक गाँव में बापू ने हरिजनों और मुसलमानों का मेहमान बनकर रामकथा का पाठ किया। वे यह बताना चाहते थे कि रामकथा के हकदार मुसलमान और हरिजन भी हैं। बापू की नौ दिवसीय रामकथा का उद्देश्य है- धर्म का उत्थान, उसके द्वारा समाज की उन्नति और भारत की गौरवशाली संस्कृति के प्रति लोगों के भीतर ज्योति जलाने की तीव्र इच्छा। मोरारी बापू के कंधे पर रहने वाली 'काली कमली' (शॉल) के विषय में अनेकानेक धारणाएँ प्रचलित हैं। एक धारणा यह है कि काली कमली स्वयं हनुमानजी ने प्रकट होकर प्रदान की और कुछ लोगों का मानना है कि यह काली कमली उन्हें जूनागढ़ के किसी संत ने दी, लेकिन मोरारी बापू इन मतों के बारे में अपने विचार प्रकट करते हुए कहते हैं कि काली कमली के पीछे कोई रहस्य नहीं है और न ही कोई चमत्कार। मुझे बचपन से काले रंग के प्रति विशेष लगाव रहा है और यह मुझे अच्छी लगती है, सो इसे मैं कंधे पर डाले रखता हूँ। किसी भी धार्मिक और राजनीतिक विवादों से दूर रहने वाले मोरारी बापू को अंबानी परिवार में विशेष सम्मान दिया जाता है। स्व. धीरूभाई अंबानी ने जब जामनगर के पास खावड़ी नामक स्थान पर रिलायंस की फैक्टरी का शुभारंभ किया तो उस मौके पर मोरारी बापू की कथा का पाठ किया था। तब उन्होंने धीरूभाई से पूछा कि लोग इतनी दूर से यहाँ काम करने आएँगे तो उनके भोजन का क्या होगा? बापू की इच्छा थी कि अंबानी परिवार अपने कर्मचारियों को एक समय का भोजन दे और तभी से रिलायंस में एक वक्त का भोजन दिए जाने की शुरुआत हुई। यह परंपरा अब तक कायम है। मोरारी बापू अपनी कथा में शेरो-शायरी का भरपूर उपयोग करते हैं, ताकि उनकी बात आसानी से लोग समझ सकें। वे कभी भी अपने विचारों को नहीं थोपते और धरती पर मनुष्यता कायम रहे, इसका प्रयास करते रहते हैं। उनकी इच्छा थी कि पाकिस्तान जाकर रामकथा का पाठ करें, लेकिन वीजा और सुरक्षा कारणों से ऐसा संभव नहीं हो पा रहा है। आज न जाने कितने लोग हैं, जो बापू के ऐसे भक्त हो गए कि उनके पीछे-पीछे हर कथा में पहुँच जाते हैं और रामकथा में गोते लगाते रहते हैं। आज के दौर में जिस सच्चे पथ-प्रदर्शक की जरूरत महसूस‍ की जा रही है, उसमें सबसे पहले मोरारी बापू का नाम ही जुबाँ पर आता है, जो सामाजिक मूल्यों के साथ-साथ भारतीय संस्कृति का अलख जगाए हुए हैं।

maa anandmayi


माँ आनंदमयी माँ आनंदमयी
माँ आनंदमयी का जन्म एक बंगाली परिवार में 30 अप्रैल, 1896 को त्रिपुरा के खेड़ा नामक एक छोटे से गाँव में हुआ था जो कि बंगलागॉदेश में स्थित है। बचपन से ये संतपुरुषों कों पसंद करती थीं। केवल 12 वर्ष की आयु में ही इनका विवाह भोलानाथ के साथ हो गया जो कि पुलिस विभाग में कार्य करते थे। शादी के बाद इनका समय बड़ी कठिनाईयों से गुजारा चला। लेकिन स्वंय को इन्होंने दृढ़निश्चयी बनाए रखा। इस दौरान इन्होंने अपने आपको कृष्ण की भक्ति में लीन करके धीरे धीरे अपने अंदर दैवीय स्वरुप को विकसित किया। इन्होंने अपना पहला धार्मिक प्रवचन 26 वर्ष की आयु में दिया। जैसे जैसे समय बीतता गया इनकी लोकप्रियता बढ़ने लगी दूर दूर से लोग इनके प्रवचन सुनने को आने लगे।अपने इस असाधारण जीवन में इन्होंने देश के कई हिस्सों की यात्राएं की तथा कई प्रभावशाली व्यक्तियों के संपर्क में आईं जिनमें से महात्मा गाँधी एक थे, जिनसे उनका आत्मीय रिश्ता बन चुका था और ये उनके पिता स्वरूप से प्रभावित थीं। माँ आनंदमयी का स्वर्गवास 1983 में हो गया।
माँ आनंदमयी पर लेख नारियाँ अपने मृदु, भावमय एवं स्नेहिल हृदय के कारण, अपनी त्यागशीलता या समर्पण-भावना के कारण आत्मोन्नति या ईश्वर-साक्षात्कार के क्षेत्र में आसानी से और सचमुच ही आगे बढ सकती है, इसमें कोई संदेह नहीं। परंतु शर्त यह है कि उन्हें अवसर मिलना चाहिए और उस अवसर का अधिकाधिक सदुपयोग किया जाय इसके लिए पथप्रदर्शन मिलना चाहिए। अतीत काल में झाँकते है तो भारतवर्ष में शबरी, गार्गी, मैत्रेयी, जनाबाई और मीरां जैसी विदुषी नारीयाँ दिखाई देती है। वर्तमानकाल में भी ऐसी ज्ञानी, योगी या भक्त नारियाँ है और हो रही है यह इस देश का परम भाग्य है । साधना की उच्च अवस्था प्राप्त सभी नारियाँ प्रसिद्ध नहीं होती । कतिपय अज्ञात अवस्था में भी रहती हैं फिर भी भारत के आध्यात्मिक गगन में जो इनेगुने, कतिपय असाधारण आकर्षक आभावाले नक्षत्रों का उदय हुआ है और जो अपने पावन प्रकाश से पृथ्वी को प्रकाशित करते है, उनमें माँ आनंदमयी का स्थान विशेष उल्लेखनीय एवं निराला है। प्रकाश के पथ में अभिरुचि रखनेवाले लोगोंने उनका नाम अवश्य सुना होगा। माँ आनंदमयी का जन्म बंगाल में हुआ था परंतु उनका कार्यक्षेत्र केवल बंगाल तक ही सीमित नहीं है । वे बंगाल की नहीं अपितु भारत की हैं। विशाल अर्थ में कहा जाये तो वे समस्त संसार की हो गई है। भारत के विभिन्न प्रदेशों में एवं भारत के बाहर विदेशो में भी उनके असंख्य प्रसंशक और अनुयायी है। कई साधक उनकी ओर आदर से देखते रहते है। वे ज्यादातर विचरण करती रहती है। उनका नाम भी सूचक है, नाम के अर्थानुसार वे सचमुच आनंदमयी है। उनके मुख पर अतीन्द्रिय अवस्था का आनंद छलकता हुआ दिख पड़ता है। मानो आनंद की प्रतिमूर्ति सामने ही बैठी हो ऐसा प्रतीत होता है। वही अलौकिक, विशुद्ध आनंद उनके नयन, वाणी एवं मुख से सहज ही निःसृत होता रहता है। उसे देख उनका नाम सचमुच सार्थक हो ऐसा लगता है। आध्यात्मिक साधना की उच्चोच्च अवस्था प्राप्त होने पर भी माँ आनंदमयी अत्याधिक सरल, निश्छल एवं विनम्र है । उम्र बडी होने पर भी उनका हृदय छोटी बाला की भाँति सरल है । श्वेत वस्त्र, लंबे-लंबे काले-काले बाल, मस्तक पर जटा, गौर वर्ण लेकिन शरीर थोडा स्थूल दिखता है । उनके निकट बैठना यह जीवन का एक अविस्मरणीय अनुपम सौभाग्य है। उनका व्यक्तित्व आकर्षक एवं प्रभावोत्पादक होने के कारण असंख्य लोग उनके इर्द गिर्द इक्ट्ठे होते है। वे पढ़ी लिखी नहीं है लेकिन आत्मज्ञानी है और साधना के मार्ग में तो आंतरिक ज्ञान, अनुभवजन्य ज्ञान ही महत्वपूर्ण होता है, इसमें क्या शक है ? ऐसा ज्ञान आवश्यक एवं अमूल्य माना जाता है । उनके ज्ञानालोक से प्रेरित व प्रभावित होकर बडे-बडे पंडित, प्रोफेसर एवं साक्षर उनके सत्संग एवं पथप्रदर्शन से लाभान्वित होते है। माँ आनंदमयी ने गृहस्थाश्रम में रहकर भी आत्मविकास पर ही जोर दिया और यही कारण है कि उन्होंने अपने पति को भी साधनापरायण बनाया, उनके हृदय को जीत लिया। जब पति का देहांत हो गया तो उनके सभी लौकिक बंधन टूट गये और वे अकेले ही विचरण करने लगी। सादगी, स्नेह तथा अपरिग्रह की प्रतिमूर्ति समान माँ आनंदमयी भारत के संतो में महत्वपूर्ण मूर्धन्य स्थान रखते हैं। नारी होने से उनका मूल्य और भी बढ़ जाता है। नारियाँ आत्मविकास की अधिकारिणी नहीं है, आत्मिक क्षेत्र में उनका कोई योगदान नहीं है ऐसा मानने वाले स्त्री-पुरुषों के लिए उनका जीवन एक प्रेरणा-स्त्रोत के समान है । मां आनंदमयी अपने जीवन द्वारा सिद्ध करती है कि आत्मिक मार्ग में नारी आगे बढ़ सकती है, इतना ही नहीं, वे सर्वोच्च पद पर आसीन हो सकती है। यों तो वे योगमार्ग की उपासिका है पर उनका हृदय भक्त का है और इसी से भजनकीर्तन में उनकी विशेष रुचि है। नाम संकीर्तन उनका प्रिय विषय है । संसार के विषय उन्हें लुभा नहीं सकते । उनका अंतर कमल की भाँति अलिप्त रहता है । भोग विलास के वातावरण में रहने पर भी त्याग के आदर्श से वे वंचित नहीं है । सन 1956 के जून महिने की बात है । माँ आनंदमयी उस समय सोलन स्टेट के राजा के निमंत्रण से सीमला हिल्स के प्रसिद्ध स्थान सोलन में पधारी थी । इस बीच एक बार रात को प्रायः दस बजे उनके पास एक मध्यम वर्ग का आदमी आया और उसने कहा, ‘माताजी, आपके लिए यह साड़ी लाया हूँ।’ माताजी कमरे में चहलकदमी कर रही थी, रुक गई और बोली, ‘साड़ी लाये हो ? मेरे पास तो है । अतिरिक्त लेके क्या करूँ?’ ‘साड़ी तो आपके पास होगी ही। आपको भला किस चीज की कमी है ? मैं तो यह प्रेम से लाया हूँ । स्वीकारोगी तो मुझे खुशी होगी।’ इतना बोलते हुए उस सज्जन की आँखे गिली हो गई । वे ज्यादा बोल न सके। माताजी का दिल पिघल गया। उन्होंने वह श्वेत साड़ी ले ली। अंदर के कमरे में जाकर उन्होंने वह साड़ी पहन ली और बाहर आई। उनके हाथ में पहले पहनी हुई साड़ी थी। उसे अर्पण करते हुए कहने लगी, ‘यह साड़ी तुम ले लो। जरुरत से ज्यादा साड़ियाँ इकठ्ठी करके मुझे क्या करना है ? आवश्यकता पड़ने पर परमात्मा देता है।’ उस सज्जन ने साड़ी ले ली, यूँ कहो उसे लेनी पड़ी । प्रसंग छोटा था मगर उसका संदेश बड़ा था। इस घटना से माँ आनंदमयी की त्याग-भावना पर प्रकाश पड़ता है। माँ आनंदमयी प्रवचन नहीं करती । प्रश्नों के उत्तर देती है । मीतभाषिणी होकर अपनी उपस्थिति से ही शांति प्रदान करती है, प्रेरणा व पथप्रदर्शन देती है । उनका शांत समागम भी जीवन का पाथेय बन जाता है और जीवन में क्रांति पैदा कर देता है । उनकी आध्यात्मिक प्रसंग अनेकों के लिए आशीर्वाद समान है । शांत रहकर भी अत्यधिक महत्वपूर्ण काम करती है । भारत के आध्यात्मिक इतिहास में वे अमर हैं और रहेंगी ।

dalai lama


दलाई लामा
तेनजिन ग्यात्सो यानि चौदहवें दलाई लामा तिब्बत के राष्ट्राध्यक्ष और आध्यात्मिक गुरू हैं। उनका जन्म 6 जुलाई, 1935 को उत्तर-पूर्वी तिब्बत के ताकस्तेर क्षेत्र में रहने वाले येओमान परिवार में हुआ था। दो वर्ष की अवस्था में बालक ल्हामों थोंडुप की पहचान 13 वें दलाई लामा थुबटेन ग्यात्सो के अवतार के रूप में की गई। दलाई लामा एक मंगोलियाई पदवी है जिसका मतलब होता है ज्ञान का महासागर और दलाई लामा के वंशज करूणा, अवलोकेतेश्वर के बुद्ध के गुणों के साक्षात रूप माने जाते हैं। बोधिसत्व ऐसे ज्ञानी लोग होते हैं जिन्होंने अपने निर्वाण को टाल दिया हो और मानवता की रक्षा के लिए पुनर्जन्म लेने का निर्णय लिया हो। उन्हें सम्मान से परमपावन की कहा जाता है। भारत में जैसे श्रीराम और श्रीकृष्ण को भगवान विष्णु के अवतार माना जाता है। उसी प्रकार तिब्बत में दलाई लामा को अवलोकितेश्वर भगवान बुद्ध का अवतार माना जाता है। मान्यता है कि भगवान बुद्ध के बाद वर्तमान दलाई लामा चौहत्तरवें बुद्धावतार और चौदहवें 'दलाई लामा' हैं। प्रथम दलाई लामा का जन्म सन्‌ 1351 में हुआ था। तेरहवें दलाई लामा का देहावसान 1933 में हुआ और उनका ही अवतरण या पुनर्जन्म आमदो प्रांत में वर्तमान चौदहवें दलाई लामा के रूप में हुआ है। तिब्बत बौद्ध-धर्म कर्म-विपाक सिद्धांत को मानता है। सामान्य मनुष्यों को उनके इस जन्म के कर्मों के अनुसार ही मृत्यु के बाद दूसरा जन्म मिलता है। किंतु 'दलाई लामा' अपने भावी जन्म के बारे में स्वेच्छा से निर्णय कर सकते हैं। वे लोक कल्याण के लिए जन्म लेते हैं। दलाई लामा के स्वर्गवास के लगभग दो साल के बाद इसकी खोज की जाती है कि स्वर्गवासी दलाई लामा का पुनर्जन्म कहाँ हुआ है। इसके लिए कुछ संकेत तो स्वयं दलाई लामा अपनी मृत्यु के पूर्व अपने सहयोगियों के देते हैं जिसके आधार पर दलाई लामा के नवातार की खोज की जाती है। वर्तमान चौदहवें दलाई लामा की भी इसी प्रकार खोज हुई थी। उनका बचपन का नाम ल्हामों थोंडुप था। जिसका तिब्बती में अर्थ होता है मनोकामना पूर्ण करने वाली माँ। दलाई लामा की खोज के बाद उन्हें ल्हासा में पोटाला महल में लाकर बाकायदा बौद्ध धर्म-विचार की शिक्षा दी गई। चिंतन, अध्ययन, स्वाध्याय, योगासन, ध्यान, धारणा आदि में निष्णात होना और तत्वज्ञान में शास्त्रार्थ में प्रवीण होना भी अनिवार्यता है। वर्षों की साधना और तपस्या के बाद उन्हें 'दलाई लामा' के पद पर विधिवत अधिष्ठित किया गया। तिब्बत सैकड़ों सालों तक स्वतंत्र देश रहा। तिब्बत के प्रथम राजा भारत के मगध देश के एक राजकुमार थे। कुछ शताब्दियों तक वहाँ राजतंत्र रहा। यह दलाई लामा का सरल व्यक्तित्व ही है कि वह अपने को तिब्बत, गेलुग परिवार या बौद्ध धर्म तक सीमित न रखकर संपूर्ण विश्व के नागरिक बन सके। 1949 में चीन द्वारा तिब्बत पर हुए हमले के बाद 1959 में नेहरू जी की सहायता से दलाई लामा और लाखों शरणार्थियों ने भारत आकर तिब्बत की निर्वासित सरकार का गठन किया। तब से यह सरकार धर्मशाला (हिमाचल प्रदेश) में ही स्थापित है। यह दलाई लामा का नेतृत्व ही है जिसने तिब्बत में चीनी दमन के ख़िलाफ़ चल रहे आन्दोलन को हिंसक नहीं होने दिया है। चीनी कब्जे में तिब्बत में जनता की खराब स्थिति का शांतिपूर्ण हल ढूँढने के लिए दलाई लामा ने अस्सी के दशक में एक शांति योजना भी प्रस्तुत की। 1989 में दलाई लामा को शान्ति का नोबेल पुरस्कार मिला और चीन की धमकियों की परवाह किए बिना अनेकों राष्ट्रों ने उन्हें अपने देश के विशिष्ट नागरिक का दर्जा दिया है। उनको अनेकों सम्मान एवं बीसिओं डॉक्टरेट उपाधियां भी मिल चुकी हैं । भारत व अमेरिका के अलावा भी अनेकों विश्व विद्यालय उन्हें प्रवचन के लिए बुलाते रहते हैं। अपनी शांत मुस्कान के लिए प्रसिद्व दलाई लामा पचास से अधिक पुस्तकों के लेखक भी हैं। तिब्बत में शिक्षा परमपावन ने अपनी मठवासीय शिक्षा छह वर्ष की अवस्था में प्रारंभ की। 23 वर्ष की अवस्था में वर्ष 1959 के वार्षिक मोनलम, प्रार्थनाद्ध उत्सव के दौरान उन्होंने जोखांग मंदिर, ल्हासा में अपनी फाइनल परीक्षा दी। उन्होंने यह परीक्षा ऑनर्स के साथ पास की और उन्हें सर्वोच्च गेशे डिग्री ल्हारम्पा, बौद्ध दर्शन में पी. एच. डी. प्रदान की गई। नेतृत्व का दायित्व वर्ष 1949 में तिब्बत पर चीन के हमले के बाद परमपावन दलाई लामा से कहा गया कि वह पूर्ण राजनीतिक सत्ता अपने हाथ में ले लें। 1949 में वह माओ जेडांग, डेंग जियोपिंग जैसे कई चीनी नेताओं से बातचीत करने के लिए बीजिंग भी गए। लेकिन आखिरकार ल्हासा में चीनी सेनाओं द्वारा तिब्बती राष्ट्रीय आंदोलन को बेरहमी से कुचले जाने के बाद वह निर्वासन में जाने को मजबूर हो गए। इसके बाद से ही वह उत्तर भारत के शहर धर्मशाला में रह रहे हैं जो केंद्रीय तिब्बती प्रशासन का मुख्यालय है। तिब्बत पर चीन के हमले के बाद परमपावन दलाई लामा ने संयुक्त राष्ट्र से तिब्बत मुद्दे को सुलझाने की अपील की है। vin
ay kumar jain

swami ramdev


स्वामी रामदेव हर मर्ज की दवा : स्वामी रामदेव both; text-align: center;">
भारत के सबसे चर्चित लोगों में से एक... स्वामी रामदेव, अन्तर्राष्ट्रीय योग गुरू हैं। गज़ब की ऊर्जा और आत्म-विश्वास लिए, वह एक तेज-तर्रार सन्त हैं। साधारण परिवार में जन्में स्वामी रामदेव, आज विश्व-प्रसिद्ध व्यक्ति हैं। असल में वह मात्र एक व्यक्ति नहीं, बल्कि एक विचार हैं। ऐसा विचार, जो कभी महात्मा गांधी, सुभाषचन्द्र बोस और चन्द्रशेखर जैसे महापुरूषों ने, स्वतंत्र भारत के लिए देखा था। विचार.. देश को स्वालम्बी, स्वस्थ, मजबूत और विकसित राष्ट्र बनाने का। ताकि हम अपनी महान वैदिक संस्कृति और ज्ञान के बल पर विश्वगुरू बन सके। स्वामी रामदेव जी का जन्म हरियाणा के महेन्द्रगढ़ जनपद में सैयद अलीपुर गांव में हुआ था। 25 दिसंबर,1965 को श्रीयुत राम निवास यादव के साधारण परिवार में जन्में, इस बालक का नाम रामकृष्ण रखा गया। आंठवी कक्षा के बाद वह पक्षाघात से ग्रसित हो गये। योगासनों के निरंतर अभ्यास व जड़ी- बूटियों से निर्मित औषधियों के अद्भुत प्रभाव से वह जल्द स्वस्थ्य हो गये। आगे की पढ़ाई के लिये माता पिता ने उन्हें खानपुर के गुरुकुल में भेज दिया। जहां स्वामी बल्देवाचार्य जी ने रामकृष्ण को शिक्षा दी। उन्होंने संस्कृत में पाणिनी की अष्टाध्यायी सहित वेद व उपनिषद आदि सभी ग्रन्थ मात्र डेढ़ वर्ष के अल्पकाल में कण्ठस्थ कर लिये। युवास्था में ही सन्यासी हो गये और गुरुओं ने दीक्षा के बाद उन्हें नया नाम दिया आचार्य रामदेव । रामदेव जी ने सन् 1995 से योग को लोकप्रिय और सर्वसुलभ बनाने के लिये अथक परिश्रम करना आरम्भ किया। उन्होंने आचार्य करमवीर के साथ मिलकर दिव्य मन्दिर ट्रस्ट की स्थापना की। उन्होंने पतंजलि योगपीठ ट्रस्ट की भी स्थापना की। आज यहां असाध्य रोगों से लड़ने के लिए शोध हो रहे हैं। भारत को पुन: विश्वगुरू स्थापित करने का प्रयास चल रहा है। स्वामी जी सरल विधियां बताकर योगासन और प्राणायम की ख्याति को बढ़ा रहे हैं। योग के माध्यम से वह निराश लोगों के जीवन में बदलाव ला रहे हैं। स्वामी जी योग और प्राणायम के अलावा गौरवमयी भारतीय संस्कृति के प्रचारक भी हैं। भारतीय संस्कृति और गौरव को चोट पहुंचाने वाले ठेकेदारों को हमेशा उन्होंने धूल चटाई है। पेप्सी-कोला, ऐलोपैथी दवाई कंपनियों और वृन्दा करात जैसे कई लोगों के खिलाफ उनका पोल-खोल कार्यक्रम आज भी जारी है। कुतर्कों की नींव पर जनविरोधी कार्यों को सही ठहराने वाले लोग, अब बाबा से डरने लगे हैं। हर विषय पर चर्चा करने से पहले उसके तथ्य और आंकड़ों की पूरी लिस्ट उनके पास होती है। वह भगतसिंह और राजगुरू की ही तरह क्रांतिकारी हैं और देश की अस्मिता और स्वाभिमान के लिए उतने ही दिवाने। देश के मामले में ....नो इफ नो बट...केवल बाबा का हठ..... हठ भारत को उसका गौरव वापस दिलाने का ... संकल्प इतना मजबूत कि उनके आगे इण्लैंड की रानी को भी झुकना पड़ा। बाबा की झोली में बीमारी का सरल उपाय है। निरोगी रहना है तो योग करो...इतना ही नहीं, उन्हें तो राष्ट्र को लग रहे, रोगों से भी निपटना है। देश को भ्रष्ट्राचार, तस्करी, नकली नोट की बीमारी खा रही है.... इलाज है ना बाबा के पास ....स्वामी जी कहते हैं कि -देश की अर्थव्यवस्था के लिए खतरा बन रहे कालाधन, भ्रष्टाचार तथा नकली नोटों की तस्करी को रोकने के लिए बड़े नोटों की छपाई तुरंत बंद करके छोटे नोटों की छपाई करनी चाहिए। भ्रष्टाचार के लिए छोटे नोट देना एक समस्या बन सकता है क्योंकि उनका लेन-देन करना बहुत ही कठिन होगा।

सेक्‍स नैतिक या अनैतिक- osho


इनमें निश्‍चित संबंध है; संबंध बहुत सामान्‍य है। सेक्‍स का चरमोत्कर्ष और हंसी एक ही ढंग से होता है; उनकी प्रक्रिया एक जैसी है। सेक्‍स के चरमोत्कर्ष में भी तुम तनाव के शिखर तक जाते हो। तुम विस्‍फोट के करीब और करीब आ रहे हो। और तब शिखर पर अचानक चरम सुख घटता है। तनाव के पास शिखर पर अचानक सब कुछ शिथिल हो जाता है। तनाव के शिखर और शिथिलता के बीच इतना बड़ा विरोध है कि तुम्‍हें ऐसा लगता है कि तुम शांत, स्‍थिर सागर में गिर गये—गहन विश्रांति, सधन समर्पण। यही कारण है कि कभी भी किसी की मृत्‍यु सेक्‍स क्रिया के दौरान हार्ट अटेक से नहीं हुई। यह आश्‍चर्यजनक है। क्‍योंकि सेक्‍स क्रिया श्रमसाध्‍य कार्य है। यह महान योग है। लेकिन कभी कोई नहीं मरा इसका सामान्‍य सा कारण है कि यह गहन विश्रांति लाता है। सच तो यह है कि कार्डियोलॉजिस्‍ट और हार्ट स्‍पेशलिस्‍ट तो हार्ट के मरीजों को सेक्‍स औषधि की तरह सिफारिश करने लगे है। सेक्‍स उनके लिए बहुत मददगार हो सकता है। यह तनाव को विश्रांत करता है। और जब तनाव चला जाता है, तुम्‍हारा हार्ट अधिक प्राकृतिक ढंग से कार्य करने लगता है। यही प्रक्रिया हंसी के साथ भी है: यह भी तुम्‍हारे भीतर का निर्माण करता है। एक निश्‍चित कहानी और तुम सतत उपेक्षा किये चले जाते हो। कि कुछ होगा। और जब सचमुच कुछ होता है वह इतना अनउपेक्षित होता है कि वह तनाव को मुक्‍त कर देता है। वह होना तार्किक नहीं है। हंसी के बारे में यह बहुत महत्‍वपूर्ण बात समझना आवश्‍यक है। यह होना बहुत मजाकिया होना चाहिए, इसे निश्‍चित हास्‍यास्‍पद होना चाहिये। यदि तुम इसका तार्किक ढंग से निष्‍कर्ष निकाल सको, तब वहां हंसी नहीं होगी। एक और अर्थ में हंसी और सेक्‍स मन में गहरे से जुड़े है। तुम्‍हारी सेक्‍स की इंद्री तुम्‍हारे सेक्‍स का बाहरी हिस्‍सा है। असल में सेक्‍स वही नहीं है। सेक्‍स दिमाग के किसी केंद्र पर है। इसलिए देर-सबेर मानव इस पुराने तरह के सेक्‍स से मुक्‍त हो जायेगा। यह सचमुच हास्‍यास्‍पद है। यही कारण है कि लोग सेक्‍स अंधेरे में, रात के कंबल की ओट में करते है। यह इतनी बेतुकी क्रिया है कि यदि तुम स्‍वयं अपने को सेक्‍स क्रिया में रत देखो, तुम फिर इसके बारे में कभी नहीं सोचोगे। इसलिए लोग छुपाते है। वे अपने दरवाजे बंद कर लेत है। दरवाज़ों पर ताले लगा लेते है। विशेष रूप से वे बच्‍चों से बहुत डरते है। क्‍योंकि वे इस हास्‍यास्‍पद स्‍थिति को तत्‍काल देख लेते हे। तुम क्‍या कर रहे हो। डैडी आप क्‍या कर रहे थे? क्‍या आप पागल हो गये है? और यह पागलपन लगता है। जैसे कि मिरगी का दौरा पडा हो। सेक्‍स और हंसी के केंद्र दिमाग में बहुत पास-पास है, इसलिए कभी-कभी वे एक दूसरे को ढाँक सकते है। इसलिए जब तुम सेक्‍स क्रिया में जाते हो, यदि तुम इसे सचमुच होने दो, स्‍त्री को गुदगुदी होने लगेगी। यह गुदगुदाता है। क्‍योंकि केंद्र बहुत पास है। शिष्टता वश वह हंसेगी नहीं, क्‍योंकि पुरूष को बुरा लग सकता है। लेकिन केंद्र बहुत पास है। और कभी-कभी जब तुम गहरी हंसी में होते हो तो आनंद का वैसा ही विस्‍फोट होगा जैसा सेक्‍स में होता है। वह मात्र सांयोगिक नहीं है। कि कई खूबसूरत चुटकुले सेक्‍स से जुड़े होते है। केंद्र बहुत नजदीक है…..मैं क्‍या कर सकता हूं? ओशो कम, कम, याट अगेन कम सेक्‍स के प्रति ज़ेन नजरिया क्‍या है? ज़ेन का सेक्‍स के प्रति कोई नजरिया नहीं है। और यह ज़ेन की खूबसूरती है। यदि तुम्‍हारा कोई नजरिया होता है इसका मतलब ही होता है कि तुम इस तरह या उस तरह उससे ग्रस्‍त हो। कोई सेक्‍स के विरोध में है—उसका एक तरह का नजरिया है; और कोई सेक्‍स के पक्ष में है—उसका दूसरे तरह का रवैया है। और पक्ष में या विपक्ष में दोनों एक साथ चलते है जैसे कि गाड़ी के दो पहिये। ये शत्रु नहीं है, मित्र है, एक ही व्‍यवसाय के भागीदार। ज़ेन का किसी तरह नजरिया नहीं है। सेक्‍स के प्रति किसी का कोई भी नजरिया क्‍यों होना चाहिए? यही इसकी खूबसूरती है—ज़ेन पूरी तरह से सहज है। पानी पीने के बारे में तुम्‍हारा कोई नजरिया है? भोजन करने के बारे में तुम्‍हारा कोई नजरिया है? राज सोने को लेकर तुम्‍हारा कोई नजरिया है? कोई नजरिया नहीं है। मैं जानता हूं कि पागल लोग है जिनका इन चीजों के बारे में भी नजरिया है, कि पाँच घटों से अधिक नहीं सोना भी एक तरह का पाप है, कुछ मानों आवश्‍यक बुराई, इसलिये किसी को पाँच घंटे से अधिक नहीं सोना चाहिए। या भारत में ऐसे लोग है जो सोचते है कि तीन घंटों से अधिक नहीं सोना चाहिए। कई सदियों से यह बहुत बड़ी दुर्धटना घटी है। लोग सृजनहीन लोगों को पूजते रहे है। और कभी-कभी विकृत चीजों को। तब सोने के प्रति भी तुम्‍हारा नजरिया होगा। ऐसे लोग है जिनका भोजन के प्रति नजरिया है। यह खाओ या वह खाओ, इतना खाओ, इससे अधिक नहीं। वे अपने शरीर की नहीं सुनते है, शरीर भूखा है या नहीं। उनका अपना कोई विचार है जो वे प्रकृति पर थोपते है। ज़ेन का सेक्‍स के बारे में किसी प्रकार का नजरिया नहीं है। जेन बहुत सामान्‍य है, ज़ेन मासूम है। ज़ेन बच्‍चे जैसा है। वह कहाता है कि किसी प्रकार के नज़रिये की जरूरत नहीं है। क्‍यों? क्‍या छींकने को लेकर तुम्‍हारा कोई नजरिया है? छींके या नहीं। यह पाप है या पुण्‍य। तुम्‍हारा कोई नजरिया नहीं है। लेकिन मैंने ऐसा व्‍यक्‍ति देखा है जो छींकने का विरोधी है। और जब कभी वह छींकता है स्‍वयं की रक्षा के लिए तत्‍काल मंत्र जाप करता है। वह एक छोटे से मूर्ख पंथ का हिस्‍सा था। वह संप्रदाय सोचता है जब तुम छिंकते हो तुम्‍हारी आत्‍मा बाहर चली जाती है। छींकने में आत्‍मा बाहर जाती है, और यदि तुम परमात्‍मा को याद नहीं करो तो हो सकता है वापस न आये। यदि तुम छींकते हुए मर जाते हो तो तुम नर्क चले जाओगे। किसी भी चीज के लिए तुम्‍हारा नजरिया हो सकता है। एक बार तुम्‍हारा कोई नजरिया होता है, तुम्‍हारा भोलापन नष्‍ट हो जाता है। और वे नजरिया तुम्‍हारा नियंत्रण करने लगते है। ज़ेन न तो किसी चीज के पक्ष में है न ही किसी के विपक्ष में। ज़ेन के अनुसार जो कुछ सामान्‍य है वह ठीक है। साधारण होना, कुछ नहीं होना, शुन्‍य होना, बगैर किसी अवधारणा के होना, चरित्र के बगैर, चरित्र विहीन…… जब तुम्‍हारे पास कोई चरित्र होता है तुम किसी तरह के मनोरोगी होते हो। चरित्र का मतलब है कि कुछ तुम्‍हारे भीतर पक्‍का हो चुका है। चरित्र का मतलब है तुम्‍हारी अतीत। चरित्र का मतलब है संस्‍कार, परिष्‍कार। जब तुम्‍हारा कोई चरित्र होता है तब तुम इसके कैदी हो जाते हो, तुम अब स्‍वतंत्र नहीं रहे। जब तुम्‍हारे पास चरित्र होता है तब तुम्‍हारे आसपास कवच होता है। तुम स्‍वतंत्र व्‍यक्‍ति नहीं रहे। तुम अपना कैद खाना अपने साथ लेकिन चल रहे हो; यह बहुत सूक्ष्‍म कैद खाना है। सच्‍चा आदमी चरित्र विहीन होगा। जब मैं कहता हूं चरित्र विहीन तब इसका क्‍या मतलब होता है। वह अतीत से मुक्‍त होगा। वह क्षण में व्‍यवहार करेगा। क्षण के अनुसार। सिर्फ वही तात्‍कालिक हो सकता है। वह स्‍मृति ने नहीं देखा कि अब क्‍या करना। एक तरह की स्‍थिति बनी और तुम अपनी स्‍मृति में देख रहे हो—इसका मतलब है कि तुम्‍हारे पास चरित्र है। जब तुम्‍हारे पास कोई चरित्र नहीं होता है तब तुम सिर्फ स्‍थिति को देखते हो और स्‍थिति तय करती है कि क्‍या किया जाना चाहिए। तब यह तात्‍कालिक होता है तब वहां जवाब होगा न कि प्रतिक्रिया। ज़ेन के पास किसी बात के लिए कोई विश्‍वास-प्रक्रिया नहीं है। और इसमे सेक्‍स भी आ जाता है—ज़ेन इसके बारे में कुछ नहीं कहता है। और यह मूलभूत बात होनी चाहिए। समाज ने दमित मन पैदा किया, जीवन निरोधी मन, आनंद का विरोधी। समाज सेक्‍स के बहुत अधिक विरोध में है। समाज सेक्‍स के इतना विरोध में क्‍यों है। क्‍योंकि यदि तुम लोगों को सेक्‍स का मजा लेने दो, तुम उन्‍हें गुलाम नहीं बना सकते। यह असंभव है—एक आनंदित व्‍यक्‍ति गुलाम बनाये जा सकते है। आनंदित व्‍यक्‍ति स्‍वतंत्र व्‍यक्‍ति है; उसके पास अपनी आत्म निर्भयता है। तुम एक आनंदित व्‍यक्‍ति को युद्ध के लिए भरती नहीं कर सकते। वे युद्ध के लिए क्‍यों जायेंगे? लेकिन यदि व्‍यक्‍ति ने अपने सेक्‍स का दामन किया है तो वह युद्ध के लिए तैयार हो जायेगा। वह युद्ध में जाने के लिए तत्‍पर होगा। क्‍योंकि उसने जीवन का आनंद नहीं लिया। वह जीवन का आनंद लेने काबिल नहीं रहा, इसलिए वह सृजन के भी काबिल नहीं रहा। अब वह मात्र एक काम कर सकता है—वह विध्‍वंस कर सकता है। उसकी सारी उर्जा जहर हो गई है। यदि समाज आनंदित होने के पूरी स्‍वतंत्रता देता है, तो कोई भी विध्वंसात्मक नहीं होगा। जो लोग सुंदर ढंग से प्‍यार कर सकते है वे कभी विध्वंसात्मक नहीं हो सकते। और जो लोग सुंदर ढंग से प्रेम कर सकते है और जीवन का आनंद मना सकते हे वे प्रतियोगिक भी नहीं होंगे। सिर्फ प्रेम की मुक्‍ति इस दुनिया में क्रांति ला सकती है। साम्‍यवाद असफल हो गया, तानाशाही असफल हो गया। सभी वाद असफल हो गये क्‍योंकि गहरे में ये सभी सेक्‍स का दमन करते है। इस मामले में उनके बीच कोई फर्क नहीं है—वाशिंगटन और मॉस्को में कोई मतभेद नहीं है। बीजिंग और दिल्‍ली में—कोई मतभेद नहीं है। ये सभी एक बात पर सहमत है—सेक्‍स पर नियंत्रण किया जाना चाहिए। लोगों को सेक्स में सहज आनंद लेने की अनुमति नहीं देते है। सामान्‍यतया समाज सेक्‍स के विरोध में है, तंत्र मानवता की मदद करने के लिए आया है, मानवता को सेक्‍स पुन: देने के लिए। और जब सेक्‍स वापस दिया जायेगा, तब ज़ेन की उत्पती होती है। ज़ेन का कोई नजरिया नहीं है। ज़ेन शुद्ध स्‍वास्‍थ्‍य है। ओशो

osho never born never dai- vinay


ईसा मसीह के पश्‍चात सर्वाधिक विद्रोही व्‍यक्‍ति–ओशो
ईसा मसीह के......सबसे विद्रोही व्‍यक्‍ति--ओशो ‘’भगवान श्री रजनीश ईसा मसीह के बाद सर्वाधिक खतरनाक व्‍यक्‍ति है।‘’ ये भविष्‍यसूचक शब्‍द इस वर्ष के प्रारंभ में कहे थे टॉम राबिन्स ने जो अमरीका के सर्वश्रेष्‍ठ जीवित साहित्‍यिक लेखकों में से एक ‘’गिने जाते है। उस समय उन्‍हें इस बात का पता नहीं था लेकिन भविष्‍य में कुछ ऐसी घटनाएं घटने वाली थीं कि विश्‍व का हर प्रमुख शासक भगवान श्री रजनीश से भयभीत था। क्‍या? भगवान श्री रजनीश कौन है? और वे इतने असामान्‍य रूप से अंतर्राष्ट्रीय विवादास्‍पद व्‍यक्‍ति किस तरह बन गए? वस्‍तुत: उन्‍हें खतरनाक कहने वाले टॉम राबिन्स पहले व्‍यक्‍ति नहीं है। यह ख्‍याति उन्‍हें बहुत पहले छठे दशक में भारतीय पत्रकारों द्वारा प्राप्‍त हुई थी। जब वे विश्‍वविद्यालय में दर्शन के एक प्राध्‍यापक थे और सेक्‍स, धर्म और राजनीति संबंधी अपने क्रांतिकारी और स्‍पष्‍टवादी विचारों से अतिशय रूढ़िवादी भारतीय जनता को क्रुद्ध कर चुके थे। सातवें दशक के उत्‍तरार्ध में पाश्‍चात्‍य पत्रकार उनकी और आकृष्‍ट हुए और उन्‍होंने भी अपने विशेषण जोड़ दिये। लेकिन लगभग निरपवाद रूप से, उनमें से जो भी पूना के उनके आश्रम में गए और उन्‍हें सुना, वे लोग भारतीय समकक्षों से कही अधिक विवेकपूर्ण थे। जब वे पश्‍चिम वापिस लौटे तो ‘’असाधारण’’ ‘’विलक्षण’’ ‘’गहन रूप से प्रभावित करने वाले।‘’ ‘’अत्‍यंत विचलित करने वाले’’ और अत्‍यंत चित्‍ताकर्षक’’ जैसे विशेषण अपने साथ ले गए। पाश्चात्य प्रसार-माध्‍यम के सारे रूप यहां आए, और समीक्षाएं की। 1977 में ‘’वोग’’ पत्रिका की जीन लिएल ने उनके लिए कहा, ‘’वे एक सौम्य,करूण मय और समूचे अखण्‍डित व्‍यक्‍ति…..अत्‍यंत अनुप्राणित, अत्‍यंत सुशिक्षित…ओर विशद व गहन जानकारी रखने वाला ऐसा व्‍यक्‍ति….पहले कभी और कहीं नहीं सुना। जर्मन ‘’कॉस्‍मॉपालिटन’’ मैगजीन की फल्‍रेन्‍स गाल ने उनका वर्णन ‘’करिश्मा पूर्ण’’ कहकर किया, ऐसे जैसे एतिता पेरॅन,मार्टिन लूथर किंग, जॉन एफ. केनेडी और पोप जॉन-तेईसवें। 1979 में दूरदर्शन के निष्ठुर आलोचक अलन विकर ने अपने कार्यक्रम ‘’ विकर्स वलर्ड’’ में कहा: ‘’वे बहुत सुंदर है….बोलते वक्‍त वे बहुत ही प्रभावशाली लगते है।‘’ डच पैनौरमा’’ मैगजीन के मासेंल मियेर, जो 1978 में पूना आए थे। की दृष्‍टि में वे मनोविज्ञान के आचार्य ओर परम बुद्धिमान’’ थे। उन्‍होंने कहा ऐसा व्‍यक्‍ति मैंने सिर्फ किताबों में ही देखा था। वास्‍तविक जीवन में तो देखने की मैं कल्‍पना ही नहीं कर सकता। वे पृथ्‍वी के जीवित चमत्‍कार है।‘’अरगेंटिनिशेस टेगब्‍लाट’’ की मेरीलुइज एलेमन ने 1980 में लिखा। ‘’पूरब तर देशों के लोगों के मन में ‘’भारत’’ अथवा ‘’गुरू’’ शब्‍द सुनते ही बेखटके जो छवि उभरती है, स्‍पष्‍टत: उस सौम्य पवित्र व्‍यक्‍ति नामक लहर पर सवार होना उन्‍होंने स्‍वीकार नहीं किया है, और न ही सर्वज्ञ, करूणा मय सद्गुरू वाली छवि की नकाब उन्‍होंने ओढ़नी चाही है।‘’ रोनाल्‍ड कॉनवे,जो कि ऑस्‍टेलिया में प्राध्‍यापक, लेखक, केथॅलिक तथा वहां के एक अस्‍पताल में वरिष्‍ठ परामर्शक मनोवैज्ञानिक है, 1980 में पूना के आश्रम में आए थे। वे अपनी रिपोर्ट में कहते है। ‘’उनके आस पास कुछ मीटर की दूरी पर होना मात्र कुछ विलक्षण परिणाम लाता है। उसका स्‍त्रोत कुछ भी हो, लेकिन रजनीश में कोई विलक्षण शक्‍ति और चुम्‍बकत्‍व है। जो इतनी स्‍पर्श गोचर है कि महसूस की जा सके……उनको देखकर मुझे लगा कि शायद ईसा मसीह इसी तरह के रहे होंगे। और ‘’लंदन टाइम्‍स’’ के बना्रर्ड लेविन जिन्‍हें रूढ़िवादी सामाजिक समीक्षकों में तीखे वाग बाणों का प्रयोग करने वाले वरिष्‍ठ सदस्‍य कहा जाता है। जब 1980 में रजनीश आश्रम देखने आए तो उनके उद्गार इस प्रकार थे: ‘’उस व्‍यक्‍ति से मैं एकदम सम्‍मोहित हो गया…..ओर उनके आसपास रहनेवाले लोगों से भी। रजनीश एक अनूठे शिक्षक है। और एक असाधारण चुंबक।‘’ जिन लोगों के बहुत संदेह वादी होने की अपेक्षा थी, उनके ये उद्गार देख कर लगता है कि उन तुलनात्‍मक रूप से प्रारंभिक दिनों में भी भगवान मात्र एक अन्‍य मशहूर किये गये पूर्वीय गुरु नहीं थे। जैसा की ‘’एडीलेड (ऑस्टेलिया) सैटरडे रिव्यू में एलन अटकिन्‍सन ने 1अगस्‍त, 1981 के अंक में लिखा, ‘’यह बात साफ है कि रजनीश कोई साधारण आदमी नहीं है। उनका वर्णन इन शब्‍दों में किया जाता है: एक महान आधुनिक आध्‍यात्‍मिक ऋषि; जीसस और बुद्ध की परंपरा के; बुद्धत्‍व को उपल्‍बध सद्गुरू; पूना के झक्‍की संत; वर्तमान समय के प्रसन्‍नचित जॉन द बैपटिस्ट—और उनके विरोधियों के अनुसार वे क्राइस्‍ट-विरोधी, पागल, संसार के सबसे खतरनाक आदमी। विगत दो वर्षों से पश्‍चिम के मनोवैज्ञानिकों, मानसचिकित्सकों, चर्च से संबंधित लोगों, पत्रकारों तथा व्‍यावसायिक संदेह वादियों के मन में उनकी उपस्‍थिति और उनके प्रभाव के कारण कुतूहल पैदा हो गया है।‘’ साढ़े चार साल बाद, सन् 1986 तक, वही कुतूहल जगाने वाली उपस्‍थिति और प्रभाव दुनिया के लगभग हर देश के लिए अपने-अपने कम्‍प्‍यूटरों में भगवान श्री रजनीश के नाम के आगे लाल सावधान चिन्‍ह अंकित कर लेने का कारण बन गया है—‘’राष्‍ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरनाक’’….. सार्वजनिक कल्‍याण की दृष्‍टि से अहित कारक उपस्‍थिति’’……राज्‍य के हितों के लिए बाधा’’…….प्रवेश कदापि न दें।‘’ क्‍यों? उनके साथ जुड़ा ‘’खतरनाक’’ विशेषण केवल उनके विचारों के कारण उन्‍हें दिया गया है। आतंकवादी अथवा किसी संघातक गिरोह के नेता के अर्थों में उनके खतरनाक होने का तो कोई कभी सवाल ही नहीं था। समस्‍त ज्ञात वृतान्‍त के अनुसार वे एक ऐसे व्‍यक्‍ति थे जो कभी अपने घर से बाहर नहीं गए, बल्‍कि प्रवचन देने के अलावा जो वास्‍तव में अपने कमरे तक से बाहर नही गए। और जिन्‍होंने बोलने के अलावा और कुछ भी नहीं किया हे। जिन दो देशों में वे रहे—भारत और अमेरिका—उनमें गहरी छानबीन करने के बावजूद भी जिस व्‍यक्‍ति के ऊपर कोई भी जुर्म कायम नहीं किया जा सका, सिवाय इसके कि उन्‍होंने आप्रवास अधिकारियों को झूठे वक्तव्य दिए है।* फिर जर्मन, स्‍विस, ऑस्‍टेलियन तथा डच सरकारों को1986 में आपातकालीन आदेश क्‍यों पास करने पड़े कि यह व्‍यक्‍ति उनके देश की जमीन पर पाँव तक नहीं रख सकता? इटली ओर स्‍वीडन ने उन्‍हें पर्यटक-वीसा देने से इन्‍कार कर दिया? जब हिथ्रो हवाईअड्डे पर उनका जेट आठ घंटे के लिए उतरा तब इंग्‍लैंड ने उनको ट्रांजिट लाउंज में रात भी रूकने की इजाजत क्‍यों नहीं दी? ग्रीस में जब उन्‍हें चार हफ्ते रूकने की अनुमति थी तब उन्‍हें दो हफ्तों के बाद वहां से अचानक निकाल बाहर क्‍यों कर दिया गया—जबकि इन दो हफ्तों में उन्‍होंने अपने घर के बाहर कदम भी नहीं रखा। जिस जेट प्‍लेन में वे यात्रा कर रहे थे, उसे कनाडा ने ईंधन लेने हेतु पैंतालीस मिनटों के लिए भी क्‍यों नहीं उतरने दिया—ऐसा लिखित गांरटी के बावजूद भी कि वे प्‍लेन के बाहर कदम भी नहीं रखेंगे? सामान्‍यत: सीधे-सादे करीबियन द्वीप-समूहों ने अखबारों द्वारा प्रसारित मान्‍ एक अफवाह की हल्‍की सी भनक पर की वे वहीं जा रहे है, अपने हवाई अड्डों को सतर्क क्‍यों कर दिया कि उनका हवाई जहाज वहां उतरने ने दें? जमाइका ने उन्‍हें दस दिन का वीसा देने के बाद, उनके वहां पहुंचने पर उन्‍हें चौबीस घंटे के भीतर देश छोड़ने का आदेश क्‍यों दे दिया? क्रिश्‍चियन डेमोक्रैटों के एक गुट ने यूरोप की संसद के सामने यह प्रस्‍ताव क्‍यों रखा कि सदस्‍य-देश ऐसे उपास करें जिससे वे ( भगवान श्री रजनीश) कभी भी उन देशों की सीमा में रह न सकें? वेटिकन ने अपने नियंत्रण के अंतर्गत आनेवाले सभी इतालवी समाचार पत्रों से यह निवेदन क्‍यों किया कि वे उनके नाम तक का उल्‍लेख न करें? अमरीका अटर्नी जनरल एड मीज़ ने ऐसा क्‍यों कहा कि वे चाहते है कि ‘’वे( भगवान श्री) भारत वापिस हो और फिर कभी देखने-सुनने में न आएं’’ और वे पश्‍चिम जगत में न रहें इसके लिए अमरीकी सरकार को ब्लैक मेल पर क्‍यों उतरना पड़ा? ऐसी क्‍या बात थी जिससे कि विश्‍व की सर्वाधिक ताकतवर सरकारें एक अकेले आदमी से इतनी भय-भीत हो गई। जिसके पास किसी भी तरह का राजनैतिक पद नहीं था। जो स्‍वयं के सिवाय किसी ओर का प्रतिनिधित्‍व नहीं करता था, और जो बोलने के अतिरिक्‍त और कोई कृत्‍य नहीं करता? यह कौन आदमी था जिसने अपने खिलाफ कम्युनिस्ट, पूंजीवादी, केथॅलिक, फासिस्‍टों को एक अश्रुतपूर्व पवित्र गठबंधन में जोड़ दिया? –सू एपलटन *पीत पत्रकारिता द्वारा उत्‍कंठा पूर्वक प्रसारित की गयी अफ़वाहों के ठीक विपरीत, भगवान श्री रजनीश भारत में कभी किसी प्रकार के आरोप के जुर्म में नहीं थे। अमरीका में, चार वर्ष तक प्रात: प्रत्‍येक सरकारी ऐजेंसी द्वारा चलाई गयी जांच-पड़तालों के बाद, केवल क्षुद्र आरोप जो उन पर लगाये जा सके थे कि अमरीका-आगमन पर उन्‍होंने झूठा वक्‍तव्‍य दिया कि उनका उस देश में स्‍थायी आवास का इरादा नहीं था जबकि वास्‍तव में उनका वैसा इरादा था। और कि उन्‍होंने कूद लोगों को ऐसे विवाहों के आधार पर स्‍थायी आवास के लिए आवेदन करने की प्रेरणा दी जिनके बारे में उन्‍हें पता था कि वे विवाह सही नहीं थे। (और ये सब उस समय जब वे सर्वविदित वे सर्वमान्‍य रूप से मौन में थे…

mahaveer


भगवान महावीर और गौतम—(कथा यात्रा)
गौतम उस समय का बड़ा पंडित था। हजारों उसके शिष्‍य थे, जब वह महावीर को मिला, उसके पहले उसका बड़ा नाम था, वह ब्राह्मण घर में जन्‍मा था। महावीर से विवाद करने ही आया था। गौतम, महावीर से विवाद करना ठीक उल्‍टा होगा ये उसे ज्ञात नहीं था। वह थोथे ज्ञान से भरा था। तर्क बुद्धि थी। तक्र बुद्धि आदमी को अहंकारी बना देती है। महावीर को पराजित करने के लिए आया था। हरा दिये होंगे पंडित पुरोहित। जो जानकारी रखते होंगे। उसने सोचा महावीर भी जानकरी से भरा है। और उस समय महावीर का बहुत सम्‍मान और नाम था। गौतम ने सोचा अगर महावीर को हरा दूँ तो बहुत नाम हो जायेगा। अगर महावीर के पास गौतम से कम जानकारी होती तो, गौतम तो महावीर को हराने के लिए ही आया था। और गौतम ज्ञान से परिचित नहीं था। क्‍योंकि ज्ञान का तो कोई सवाल ही नहीं था, उसके पास उसके पास तो जानकारी थी। गौतम को रूपांतरित करने का कोई उपाय नहीं था। पहले उसकी जानकारी उससे छीनती जाए। उसे खाली किया जाये। उसे उसके ही तर्कों से हराया जाये। आखिर गौतम भगवान महावीर से पराजित हुआ। जब वह भगवान महावीर से जानकारी में भी हार गया। तब उसने महावीर की तरफ श्रद्धा से देखा। और तब महावीर ने कहा कि अब मैं तुझे वह बात कहूंगा, जिसका तुझे कोई पता नहीं है। अभी तो मैं वह कहा रहा था जिसका तुझे पता है। मैंने तुझसे जो बातें कहीं है वह तेरे ज्ञान को गिरा देने के लिए, अब तू अज्ञानी हो गया। अब तेरे पास कोई ज्ञान नहीं है। अब मैं तुझसे जो बातें कहूंगा जिससे तू वस्‍तुत: ज्ञानी हो सकता है। क्‍योंकि जो ज्ञान विवाद से गिर जाता है, उसका क्‍या मूल्‍य है? जो ज्ञान तर्क के कट जाता है, उसका क्‍या मूल्‍य है?
गौतम महावीर के चरणों में गिर गया। उनका शिष्‍य बन गया। गौतम इतना प्रभावित हो गया महावीर से, कि आसक्‍त हो गया,महावीर के प्रति मोह से भर गय। गौतम महावीर का प्रमुखत्‍म शिष्‍य था। प्रथम शिष्‍य, शिष्‍य, श्रेष्ठतम शिष्‍य। उनका पहला गणधर हे। उनका पहला संदेशवाहक है। लेकिन, गौतम ज्ञान को उपल्‍बध नहीं हो सका। गौतम के पीछे हजारों-हजारों लोग दीक्षित हुए और ज्ञान को उपलब्‍ध हुए। और गौतम ज्ञान को उपलब्‍ध नहीं हो सका। गौतम महावीर की बातों को ठीक-ठीक लोगों तक पहुंचाने लगा। संदेशवाहक हो गया। जो महावीर कहते थे, वही लोगों तक पहुंचाने लगा। उससे ज्‍यादा कुशल संदेशवाहक महावीर के पास दूसरा नहीं था। लेकिन वह ज्ञान को उपलब्‍ध नहीं हो सका। वह उसका पांडित्य बाधा बन गया। वह पहले भी पंडित था, वह अब भी पंडित था। पहले वह महावीर के विरोध में पंडित था, अब महावीर के पक्ष में पंडित हो गया। अब महावीर जो जानते थे, कहते थे, उसे उसने पकड़ लिया और उसका शस्‍त्र बना लिया। वह उसी को दोहराने लगा। हो सकता है महावीर से भी बेहतर दोहराने लगा हो। लेकिन ज्ञान को उपलब्‍ध नहीं हुआ। वह पंडित ही रहा। उसने जिस तरह बाहर की जानकारी इकट्ठी की थी, उसी तरह उसने भीतर की जानकारी भी इकट्ठी कर ली। यह भी जानकारी रही,यह भी ज्ञान न बना। गौतम बहुत रोता था। वह महावीर से बार-बार कहता था, मेरे पीछे आये लोग,मुझसे कम जानने वाले लोग, साधारण लोग, मेरे जो शिष्‍य थे वे, आपके पास आकर ज्ञान को उपलब्‍ध हो गये। यह दीया मेरा कब जलेगा। यह ज्‍योति मेरी कब पैदा होगी। मैं कब पहुंच पाऊंगा? जिस दिन महावीर की अंतिम घड़ी आयी, उस दिन गौतम को महावीर ने पास के गांव में संदेश देने भेजा था। गौतम लौट रहा है गांव से संदेश देकर, तब राहगीर ने रास्‍ते में खबर दी कि महावीर निर्वाण को उपलब्‍ध हो गये। गौतम वहीं छाती पीटकर रोने, लगा, सड़क पर बैठकर। और उसने राहगीरों को पूछा कि वह निर्वाण को उपलब्‍ध हो गये। मेरा क्‍या होगा? मैं इतने दिन तक उनके साथ भटका, अभी तक मुझे तो वह किरण मिली नहीं। अभी तो मैं सिर्फ उधार,वह जो कहते थे,वही लोगों को कहे चला जा रहा हूं। मुझे वह हुआ नहीं, जिसकी वह बात करते है। अब क्‍या होगा? उनके साथ न हो सका, उनके बिना अब क्‍या होगा। मैं भटका, मैं डूबा। अब मैं अनंत काल तक भटकूंगा। वैसा शिक्षक अब कहां? वैसा गुरु अब कहां मिलेगा? क्‍या मेरे लिए भी उन्‍होंने कोई संदेश स्मरण किया है, और कैसी कठोरता की उन्‍होंने मुझ पर? जब जाने की घड़ी थी तो मुझे दूर क्‍यों भेज दिया? तो राहगीरों ने यह सूत्र उसको कहा है। यह जो सूत्र है, राहगीरों ने कहा है। कि तेरा उन्‍होंने स्‍मरण किया और उन्‍होंने कहा है कि गौतम को यह कह देना। गौतम यहां मोजूदा नहीं है, गौतम को यह कह देना। यह जो सूत्र है, यह गौतम के लिए कहलवाया गया है। ‘’जैस कमल शरद-कमल के निर्मल जल को भी नहीं छूता और अलिप्‍त रहता है। वैसे ही संसार अपनी समस्‍त आसक्‍तियां मिटा कर सब प्रकार के स्‍नेह-बंधनों से रहित हो जा। अत: गौतम, क्षण मात्र भी प्रमाद मत कर।‘’ ये जो आखिरी शब्‍द है कि तू संसार के सागर को पार कर गया—गौतम पत्‍नी को छोड़ आया, बच्‍चों को छोड़ आया। धन को छोड़ आया, मान प्रतिष्‍ठा को,पद को अहंकार को छोड़ आया। तू प्रख्‍यात था, इतने लोग जानते थे, सैकड़ों लोगों का तू गुरु था। अब उसको छोड़ कर महावीर के चरणों में गिर गया। सब छोड़ आया। तो महावीर कहते है, तूने पूरे सागर को छोड़ दिया गौतम, लेकिन अब तू किनारे को पकड़कर अटक गया। तूने मुझे पकड़ लिया। किनारे को पकड़े लिया? अब मुझे भी छोड़। जो श्रेष्‍ठतम गुरु है, उनका अंतिम काम यही है कि जब उनका शिष्‍य सब छोड़ कर उन्‍हें पकड़ ले, तो तब तक तो वे पकड़ने दें जब तक यह पकड़ना शेष को छोड़ने में सहयोगी हो, और जब सब छूट जाये तब वे अपने से भी छूटने में शिष्‍य को साथ दे। जो गुरु अपने से शिष्‍य को नहीं छुड़ा पाता,वह गुरु नहीं है। यह महावीर का वचन है, कि अब तू मुझे भी छोड़ दे, किनारे को भी छोड़ दे। सब छोड़ चुका, अब नदी भी पार कर गया,अब किनारे को पकड़ कर भी तो नदी में हो सकता है। और फिर किनारा भी बाधा बन जायेगा, माना किनारा नदी नहीं है, नदी तू पार कर चूका, फिर भी अभी भी नदी में ही तू तो है। किनारा चढ़ने को है, बाधा बनने को नहीं। इसे भी छोड़ दे और इसके भी पार हो जा। vinay kumar jain

ram


राम (रामचन्द्र), प्राचीन भारत में जन्मे, एक महापुरुष थे। हिन्दू धर्म में, राम, विष्णु के १० अवतारों में से सातवां हैं। राम का जीवनकाल एवं पराक्रम, महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित, संस्कृत महाकाव्य रामायण के रूप में लिखा गया है| उन पर तुलसीदास ने भी भक्ति काव्य श्री रामचरितमानस रचा था | खास तौर पर उत्तर भारत में राम बहुत अधिक पूजनीय माने जाते हैं । रामचन्द्र हिन्दुत्ववादियों के भी आदर्श पुरुष हैं । राम, अयोध्या के राजा दशरथ और रानी कौशल्या के सबसे बडे पुत्र थे। राम की पत्नी का नाम सीता था (जो लक्ष्मी का अवतार मानी जाती है) और इनके तीन भाई थे, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न। हनुमान, भगवान राम के, सबसे बडे भक्त माने जाते है। राम ने राक्षस जाति के राजा रावण का वध किया| हिन्दू धर्म के कई त्यौहार, जैसे दशहरा और दीपावली, राम की जीवन-कथा से जुडे हुए है। अनुक्रम [छुपाएँ] 1 राम के जीवन की प्रमुख घटनाएँ 1.1 वनवास 1.2 सीता का हरण 1.3 रावण का वध 1.4 अयोध्या वापसी 2 बाहरी कड़ियाँ [संपादित करें]राम के जीवन की प्रमुख घटनाएँ जन्म बचपन और सीता-स्वयंवर राम का जन्म प्राचीन भारत में हुआ था। उनके जन्म के समय का अनुमान सही से नही लगाया जा सका है परन्तु विशेषज्ञों का मानना है कि उसके पीछे युक्ति यह है कि बौद्ध धर्म के बारे में मौन है यद्यपि उसमें जैन,शैव,पाशुपत आदि अन्य परम्पराओं का वर्णन है। राम का जन्म तकरीबन आज से ९,००० वर्ष (७३२३ ईसा पूर्व) हुआ था।[कृपया उद्धरण जोड़ें] आज के युग मे राम का जन्म, रामनवमी के रुप में मनाया जाता है। राम चार भाईयों में से सबसे बड़े थे, इनके भाइयों के नाम लक्ष्मण (भगवान शेषनागजी के अवतार माने जाते है), भरत (भगवान ब्रह्मा जी के अवतार माने जाते है) और शत्रुघ्न (भगवान शिवजी के अवतार माने जाते है) थे। राम बचपन से ही शान्‍त स्‍वाभाव के वीर पुरूष थे । उन्‍होने मर्यादाओं को हमेशा सर्वोच्च स्थान दिया था । इसी कारण उन्‍हे मर्यादा पुरूषोत्तम राम के नाम से जाना जाता है । उनका राज्य न्‍यायप्रिय और खुशहाल माना जाता था। इसलिए भारत में जब भी सुराज की बात होती है, रामराज या रामराज्य का उदाहरण दिया जाता है । धर्म के मार्ग पर चलने वाले राम ने अपने तीनो भाइयों के साथ गुरू वशिष्‍ठ से शिक्षा प्राप्‍त की । किशोरवय में विश्वामित्र उन्‍हे वन में राक्षसों द्वारा मचाए जा रहे उत्पात को समाप्त करने के लिए ले गये। राम के साथ उनके छोटे भाई लक्ष्मण भी इस काम में उनके साथ थे। ताड़का नामक राक्षसी बक्सर (बिहार) मे रहती थी।[कृपया उद्धरण जोड़ें] वहीं पर उसका वध हुआ। राम ने उस समय ताड़का नामक राक्षसी को मारा तथा मारीच को पलायन के लिए मजबूर किया । इस दौरान ही विश्‍वामित्र उन्हें मिथिला ले गये। वहाँ के विदेह राजा जनक ने अपनी पुत्री सीता के विवाह के लिए एक समारोह आयोजित किया था । शिव का एक धनुष था जिसकी प्रत्‍यंचा चढ़ाने वाले शूर से सीता का विवाह किया जाना था । बहुत सारे राजा महाराजा उस समारोह में पधारे थे । बहुत से राजाओं के प्रयत्न के बाद भी जब धनुष पर प्रत्‍यंचा चढ़ाना तो दूर धनुष उठा तक नहीं सके, तब विश्‍वामित्र की आज्ञा पाकर राम ने धनुष उठा कर प्रत्‍यंचा चढ़ाने की प्रयत्न की । उनकी प्रत्‍यंचा चढाने की प्रयत्न में वह महान धुनुष घोर ध्‍‍वनि करते हुए टूट गया । महर्षि परशुराम ने जब इस घोर ध्‍वनि सुना तो वहाँ आगये और अपने गुरू (शिव) का धनुष टूटनें पर रोष व्‍यक्‍त करने लगे । लक्ष्‍मण उग्र स्‍वाभाव के थे । उनका विवाद परशुराम से हुआ । तब राम ने बीच-बचाव किया । इस प्रकार सीता का विवाह राम से हुआ और परशुराम सहित समस्‍त लोगो ने आशीर्वाद दिया । अयोद्या में राम सीता सुखपूर्वक रहने लगे । लोग राम को बहुत चाहते थे । उनकी मृदुल, जनसेवायुक्‍त भावना और न्‍यायप्रियता के कारण उनकी विशेष लोकप्रियता थी । राजा दशरथ वानप्रस्‍थ की ओर अग्रसर हो रहे थे । अत: उन्‍होने राज्‍यभार राम को सौंपनें का सोचा । जनता में भी सुखद लहर दौड़ गई की उनके प्रिय राजा उनके प्रिय राजकुमार को राजा नियुक्‍त करनेवाले हैं । उस समय राम के अन्‍य दो भाई भरत और शत्रुघ्‍न अपने ननिहाल कैकेय गए हुए थे । कैकेयी की दासी मंथरा ने कैकेयी को भरमाया कि राजा तुम्‍हारे साथ गलत कर रहें है । तुम राजा की प्रिय रानी हो तो तुम्‍हारी संतान को राजा बनना चाहिए पर राजा दशरथ राम को राजा बनाना चा‍हते हैं । राम के बचपन की विस्तार-पूर्वक विवरण स्वामी तुलसीदास की रामचरितमानस के बालकाण्ड से मिलती है। ]वनवास राजा दशरथ के तीन रानियाँ थीं: कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी। राम कौशल्या के पुत्र थे, सुमित्रा के दो पुत्र, लक्ष्मण और शत्रुघ्न थे और कैकेयी के पुत्र भरत थे। कैकेयी चाहती थी उनके पु्त्र भरत राजा बनें, इसलिए उन्होने राजा दशरथ द्वरा राम को १४ वर्ष का वनवास दिलाया। राम ने अपने पिता की आज्ञा का पालन किया। राम की पत्नी सीता, और उनके भाई लक्ष्मण भी वनवास गये थे। [संपादित करें]सीता का हरण राम एवं सुग्रीव की भेंट। वनवास के समय, रावण ने सीता का हरण किया था। रावण एक राक्षस तथा लंका का राजा था। रामायण के अनुसार, सीता और लक्ष्मण कुटिया में अकेले थे तब एक हिरण की वाणी सुनकर सीता परेशान हो गयी। वह हिरण रावण का मामा मारीच था| उसने रावण के कहने पर सुनहरे हिरण का रूप बनाया| सीता उसे देख कर मोहित हो गई और श्रीराम से उस हिरण का शिकार करने का अनुरोध किया| श्रीराम अपनी भार्या की इच्छा पूरी करने चल पडे और लक्ष्मण से सीता की रक्षा करने को कहा| मारीच श्रीराम को बहुत दूर ले गया| मौका मिलते ही श्रीराम ने तीर चलाया और हिरण बने मारीच का वध किया| मरते मरते मारीच ने ज़ोर से "हे सीता ! हे लक्ष्मण" की आवाज़ लगायी| उस आवाज़ को सुन सीता चिन्तित हो गयीं और उन्होंने लक्ष्मण को श्रीराम के पास जाने को कहा| लक्ष्मण जाना नहीं चाहते थे, पर अपनी भाभी की बात को इंकार न कर सके| लक्ष्मण ने जाने से पहले एक रेखा खीची, जो लक्ष्मण रेखा के नाम से प्रसिद्ध है। राम, अपने भाई लक्ष्मण के साथ सीता की खोज मे दर-दर भटक रहे थे। तब वे हनुमान और सुग्रीव नामक दो वानरों से मिले। हनुमान, राम के सबसे बडे भक्त बने। [संपादित करें]रावण का वध भवानराव बाळासाहेब पंतप्रतिनिधी कृत रावण-वध। सीता को को वापिस प्राप्त करने के लिए भगवन राम ने हनुमान और वानर सेना की मदद से रावन के सभी बंधू-बांधवो और उसके वंशजोँ को पराजित किया था । [संपादित करें]अयोध्या वापसी अयोध्या-वापसी। भगवान राम ने जब रावण को युद्ध में परास्त किया और उसके छोटे भाई विभीषण को लंका का राजा बना दिया। राम, सीता, लक्षमण और कुछ वानर जन पुष्पक विमान से अयोध्या कि ओर प्रस्थान किया| वहां सबसे मिलने के बाद राम और सीता का अयोध्या मे राज्याभिषेक हुआ| पूरा राज्य कुशल समय व्यतीत करने लगा।

britney spears


रेस्त्रां शुरू करेंगी ब्रिटनी स्पीयर्स लंदन। पॉप संगीत जगत की हस्ती ब्रिटनी स्पीयर्स लॉस एंजेल्स में एक नया रेस्त्रां शुरू करने की तैयारी कर रही हैं और वह चाहती हैं कि उसका कामकाज उनके पिता देखें। कॉन्टेक्ट म्यूजिक ने खबर दी कि बीते वर्ष ब्रिटनी ने पिता जैमी स्पीयर्स को अपने व्यक्तिगत तथा पेशेवर मामलों का सह-संरक्षक बना दिया था। अब वह चाहती हैं कि उनके पिता ही यह रेस्त्रां चलाएं। एक सूत्र ने कहा कि ब्रिटनी पिता को कुछ उपयोगी उपहार देना चाहती हैं, जो उनके बारे में प्रशंसा का एक संकेत होगा। ब्रिटनी ने 2002 में न्यूयार्क में नायला रेस्त्रां शुरू किया था पर वह चल नहीं सका। अब वह लॉस एंजिलिस में सोल फूड पर आधारित एक रेस्त्रां शुरू करना चाहती हैं।

ledy gaga


लेडी गागा लेडी गागा द् मॅान्स्टर बॉल . 2010 में प्रदर्शन करते हुए जन्मनाम स्टेफनी जोअन्ने एंजेलीना जर्मोन्ता जन्म 28 मार्च 1986 ;आयु 26द्ध न्यूयॉर्क शहरए संयुक्त राज्य अमेरिका शैली पॉपए नृत्य व्यवसाय गायिका.संगीतकारए प्रदर्शन कलाकारएख्1, रिकार्ड निर्माताए नर्तकीए व्यवसायिका वाद्ययंत्र मौखिकए पियानोए सिंथेसाइज़र सक्रिय वर्ष 200
स्टेफनी जोअन्ने एंजेलीना जर्मोन्ता ;अंग्रेजीरू ैजमंिदप श्रवंददम ।दहमसपदं ळमतउंदवजजंद्ध ;जन्म. मार्च 28ए 1986द्ध अधिकतर लेडी गागा के नाम से प्रसिद्ध एक अमेरिकी गायिका व संगीतकार हैद्य गागा ने अपना रॉक संगीत गायिका का सफर न्यूयॉर्क शहर से सन् 2003 मे किया थाए और जब से ले कर अब तक गागा संगीत जगत के कयी प्रसिद्ध पुरस्कार जीत चुकी हैद्य गागा ग्रैमी पुरस्कार के लिये 12 बार नामन्कित हुई है जिसमे से 5 बार पुरस्कार इन्हे मिल चुका हैए इनके नाम 2 गिनीज बुक आफ व‌र्ल्ड रिकार्ड भी हैंद्यख्2, ख्संपादित करें,जीवन और संगीत जीविका लेडी गागा का जन्म 28 मार्च 1986 को न्यूयॉर्क में एक इतालवी.अमेरिकी धार्मिक परिपाटियों पर चलने वाले रूढ़िवादी मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था। पिता छोटे से व्यवसायी थेए मां भी बाहर नौकरी करती थीं।। न्यूयॉर्क की एक साधारण.सी बस्ती में उनका अपना मकान था। गागा ने अपनी शिक्षा मैनहटन के कट्टर कैथोलिक स्कूल से ग्रहन की थीए जो की केवल लड़कियों के लिए था। गागा को बचपन से ही संगीत का बहुत शोक था। महज चार साल की उम्र में वह पियानो में पारंगत हो गईं। कुछ और बड़ा होते.होते नृत्य कला व 17 साल की उम्र में गाने लिखने लगींए म्यूजिक की रचना करने लगीं। इसी उम्र में उन्हें उनकी प्रतिभा न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय के उस स्कूल ऑफ आर्ट्स में ले गई।द्यख्3, 2007 में वह क्लबों में लेडी गागा के नाम से परफॉर्म करने लगीं। अमेरिकी म्यूजिक इंडस्ट्री के लोगों की नजर उन पर पड़ी। सही मायनों में उन्हें आगे बढ़ाया पॉप सुपर स्टार एकॉन ने। वह एकॉन के दल में गाने भी लगीं। साथ में संगीत कंपनी इंटरस्कोप के लिए गाने भी लिखतीं। इसी दौरान इंटरस्कोप के साथ उन्होंने अपने पहले सोलो गाने जस्ट डांस की तैयारी शुरू की। इसे अप्रैल 2008 में रेडियो पर रिलीज किया। लेकिन पूरा गाना अगस्त तक रिलीज हो पाया। जस्ट डांस ने धीमे.धीमे गति पकड़ी। बिलबोर्ड हॉट 100 में जगह बनाने के बाद गागा की विख्याति दुनियाभर मे फैल गई। जनवरी 2009 तक ये दुनिया के कई देशो जैसे ऑस्ट्रेलियाए कनाडाए नीदरलैंडए आयरलैंडए युनाइटेड किंगडमए और संयुक्त राज्य अमेरिका के चार्ट पर नंबर वन बन गया था।ख्3

osho


सेक्‍स को दबाए नहीं, उसे समझें: ओशो Fri, 12/17/2010 - 15:07 — Other sources
'हमने सेक्स को सिवाय गाली के आज तक दूसरा कोई सम्मान नहीं दिया। हम तो बात करने में भयभीत होते हैं। हमने तो सेक्स को इस भांति छिपा कर रख दिया है जैसे वह है ही नहीं, जैसे उसका जीवन में कोई स्थान नहीं है। जब कि सच्चाई यह है कि उससे ज्यादा महत्वपूर्ण मनुष्य के जीवन में और कुछ भी नहीं है। लेकिन उसको छिपाया है, उसको दबाया है। दबाने और छिपाने से मनुष्य सेक्स से मुक्त नहीं हो गया, बल्कि मनुष्य और भी बुरी तरह से सेक्स से ग्रसित हो गया। दमन उलटे परिणाम लाया है...।' सेक्स को समझो : युवकों से मैं कहना चाहता हूँ कि तुम्हारे माँ-बाप तुम्हारे पुरखे, तुम्हारी हजारों साल की पीढ़ियाँ सेक्स से भयभीत रही हैं। तुम भयभीत मत रहना। तुम समझने की कोशिश करना उसे। तुम पहचानने की कोशिश करना। तुम बात करना। तुम सेक्स के संबंध में आधुनिक जो नई खोजें हुई हैं उसको पढ़ना, चर्चा करना और समझने की कोशिश करना कि क्या है सेक्स? सेक्स का विरोध न करें : सेक्स थकान लाता है। इसीलिए मैं तुमसे कहता हूँ कि इसकी अवहेलना मत करो, जब तक तुम इसके पागलपन को नहीं जान लेते, तुम इससे छुटकारा नहीं पा सकते। जब तक तुम इसकी व्यर्थता को नहीं पहचान लेते तब तक बदलाव असंभव है। मैं बिलकुल भी सेक्स विरोधी नहीं हूँ। क्योंकि जो लोग सेक्स का विरोध करेंगे वे काम वासना में फँसे रहेंगे। मैं सेक्स के पक्ष में हूँ क्योंकि यदि तुम सेक्स में गहरे चले गए तो तुम शीघ्र ही इससे मुक्त हो सकते हो। जितनी सजगता से तुम सेक्स में उतरोगे उतनी ही शीघ्रता से तुम इससे मुक्ति भी पा जाओगे। और वह दिन भाग्यशाली होगा जिस दिन तुम सेक्स से पूरी तरह मुक्त हो जाओगे। धन और सेक्स : धन में शक्ति है, इसलिए धन का प्रयोग कई तरह से किया जा सकता है। धन से सेक्स खरीदा जा सकता है और सदियों से यह होता आ रहा है। राजाओं के पास हजारों पत्नियाँ हुआ करती थीं। बीसवीं सदी में ही केवल तीस-चालीस साल पहले हैदराबाद के निजाम की पाँच सौ पत्नियाँ थीं। मैं एक ऐसे व्यक्ति को जानता हूँ जिसके पास तीन सौ पैंसठ कारें थीं और एक कार तो सोने की थी। धन में शक्ति है क्योंकि धन से कुछ भी खरीदा जा सकता है। धन और सेक्स में अवश्य संबंध है। जो सेक्स का दमन करता है वह अपनी ऊर्जा धन कमाने में खर्च करने लग जाता है क्योंकि धन सेक्स की जगह ले लेता है। धन ही उसका प्रेम बन जाता है, धन के लोभी को गौर से देखना- सौ रुपए के नोट को ऐसे छूता है जैसे उसकी प्रेमिका हो और जब सोने की तरफ देखता है तो उसकी आँखें कितनी रोमांटिक हो जाती हैं... बड़े-बड़े कवि भी उसके सामने फीके पड़ जाते हैं। धन ही उसकी प्रेमिका होती है। वह धन की पूजा करता है, धन यानी देवी। भारत में धन की पूजा होती है, दीवाली के दिन थाली में रुपए रखकर पूजते हैं। बुद्धिमान लोग भी यह मूर्खता करते देखे गए हैं। दुख और सेक्स : जहाँ से हमारे सुख दु:खों में रूपांतरित होते हैं, वह सीमा रेखा है जहाँ नीचे दु:ख है, ऊपर सुख है इसलिए दु:खी आदमी सेक्सुअली हो जाता है। बहुत सुखी आदमी नॉन-सेक्सुअल हो जाता है क्योंकि उसके लिए एक ही सुख है। जैसे दरिद्र समाज है, दीन समाज है, दु:खी समाज है, तो वह एकदम बच्चे पैदा करेगा। गरीब आदमी जितने बच्चे पैदा करता है, अमीर आदमी नहीं करता। अमीर आदमी को अकसर बच्चे गोद लेने पड़ते हैं! उसका कारण है। गरीब आदमी एकदम बच्चे पैदा करता है। उसके पास एक ही सुख है, बाकी सब दु:ख ही ‍दु:ख हैं। इस दु:ख से बचने के लिए एक ही मौका है उसके पास कि वह सेक्स में चला जाए। वह ही उसके लिए एकमात्र सुख का अनुभव है, जो उसे हो सकता है। वह वही है। सेक्स से बचने का सूत्र : जब भी तुम्हारे मन में कामवासना उठे तो उसमें उतरो। धीरे- धीरे तुम्हारी राह साफ हो जाएगी। जब भी तुम्हें लगे कि कामवासना तुम्हें पकड़ रही है, तब डरो मत शांत होकर बैठ जाओ। जोर से श्वास को बाहर फेंको- उच्छवास। भीतर मत लो श्वास को क्योंकि जैसे ही तुम भीतर गहरी श्वास को लोगे, भीतर जाती श्वास काम-ऊर्जा को नीचे की तरफ धकाती है। जब तुम्हें कामवासना पकड़े, तब बाहर फेंको श्वास को। नाभि को भीतर खींचो, पेट को भीतर लो और श्वास को फेंको...जितनी फेंक सको फेंको। धीरे-धीरे अभ्यास होने पर तुम संपूर्ण रूप से श्वास को बाहर फेंकने में सफल हो जाओगे। सेक्स और प्रेम : वास्तविक प्रेमी अंत तक प्रेम करते हैं। अंतिम दिन वे इतनी गहराई से प्रेम करते हैं जितना उन्होंने प्रथम दिन किया होता है; उनका प्रेम कोई उत्तेजना नहीं होता। उत्तेजना तो वासना होती है। तुम सदैव ज्वरग्रस्त नहीं रह सकते। तुम्हें स्थिर और सामान्य होना होता है। वास्तविक प्रेम किसी बुखार की तरह नहीं होता यह तो श्वास जैसा है जो निरंतर चलता रहता है। प्रेम ही हो जाओ। जब आलिंगन में हो तो आलिंगन हो जाओ, चुंबन हो जाओ। अपने को इस पूरी तरह भूल जाओ कि तुम कह सको कि मैं अब नहीं हूँ, केवल प्रेम है। तब हृदय नहीं धड़कता है, प्रेम ही धड़कता है। तब खून नहीं दौड़ता है, प्रेम ही दौड़ता है। तब आँखें नहीं देखती हैं, प्रेम ही देखता है। तब हाथ छूने को नहीं बढ़ते, प्रेम ही छूने को बढ़ता है। प्रेम बन जाओ और शाश्वत जीवन में प्रवेश करो। साभार : पथ के प्रदीप, धम्मपद : दि वे ऑफ दि बुद्धा, ओशो उपनिषद, तंत्र सूत्र, रिटर्निंग टु दि सोर्स, एब्सोल्यूट ताओ से संकलित अंश। सौजन्य : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन

Sunday, June 3, 2012

छत्रपति शिवाजी महाराज


छत्रपति शिवाजी महाराज का पूरा नाम 'शिवाजी राजे भोंसले' था। शिवाजी का जन्म 19 फ़रवरी, 1630 ई. को शिवनेरी, महाराष्ट्र राज्य में हुआ। इनके पिता का नाम शाहजी भोंसले और माता का नाम जीजाबाई था। शिवाजी भारत में मराठा साम्राज्य के संस्थापक थे। सेनानायक के रूप में शिवाजी की महानता निर्विवाद रही है। शिवाजी ने अनेक क़िलों का निर्माण और पुनरुद्धार करवाया। उनके निर्देशानुसार सन 1679 ई. में अन्नाजी दत्तों ने एक विस्तृत भू-सर्वेक्षण करवाया, जिसके परिणामस्वरूप एक नया राजस्व निर्धारण हुआ। शिवाजी का उल्लेख इन लेखों में भी है: शिवनेरी, अमात्य, तुलजा भवानी एवं सिंहगढ़ दुर्ग जीवन परिचय
इनके पिताजी शाहजी भोंसले ने शिवाजी को जन्म के उपरान्त ही अपनी पत्नी जीजाबाई को प्रायः त्याग दिया था। उनका बचपन बहुत उपेक्षित रहा और वे सौतेली माँ के कारण बहुत दिनों तक पिता के संरक्षण से वंचित रहे। उनके पिता शूरवीर थे और अपनी दूसरी पत्नी तुकाबाई मोहिते पर आकर्षित थे। जीजाबाई उच्च कुल में उत्पन्न प्रतिभाशाली होते हुए भी तिरस्कृत जीवन जी रही थीं। जीजाबाई यादव वंश से थीं। उनके पिता एक शक्तिशाली और प्रभावशाली सामन्त थे। बालक शिवाजी का लालन-पालन उनके स्थानीय संरक्षक दादाजी कोणदेव तथा जीजाबाई के समर्थ गुरु रामदास की देखरेख में हुआ। माता जीजाबाई तथा गुरु रामदास ने कोरे पुस्तकीय ज्ञान के प्रशिक्षण पर अधिक बल न देकर शिवाजी के मष्तिष्क में यह भावना भर दी थी कि देश, समाज, गौ तथा ब्राह्मणों को मुसलमानों के उत्पीड़न से मुक्त करना उनका परम कर्तव्य है। शिवाजी स्थानीय लोगों के बीच रहकर शीघ्र ही उनमें अत्यधिक सर्वप्रिय हो गये। उनके साथ आस-पास के क्षेत्रों में भ्रमण करने से उनको स्थानीय दुर्गों और दर्रों की भली प्रकार व्यक्तिगत जानकारी प्राप्त हो गयी। कुछ स्वामिभक्त लोगों का एक दल बनाकर उन्होंने उन्नीस वर्ष की आयु में पूना के निकट तीरण के दुर्ग पर अधिकार करके अपना जीवन-क्रम आरम्भ किया। उनके हृदय में स्वाधीनता की लौ जलती थी। उन्होंने कुछ स्वामिभक्त साथियों को संगठित किया। धीरे धीरे उनका विदेशी शासन की बेड़ियाँ तोड़ने का संकल्प प्रबल होता गया। शिवाजी का विवाह साइबाईं निम्बालकर के साथ सन् 1641 में बंगलौर में हुआ था। उनके गुरु और संरक्षक कोणदेव की 1647 में मृत्यु हो गई। इसके बाद शिवाजी ने स्वतंत्र रहने का निर्णय लिया।
आरंभिक जीवन और उल्लेखनीय सफलताएँ शिवाजी प्रभावशाली कुलीनों के वंशज थे। उस समय भारत पर मुस्लिम शासन था। उत्तरी भारत में मुग़लों तथा दक्षिण में बीजापुर और गोलकुंडा में मुस्लिम सुल्तानों का, ये तीनों ही अपनी शक्ति के ज़ोर पर शासन करते थे और प्रजा के प्रति कर्तव्य की भावना नहीं रखते थे। शिवाजी की पैतृक जायदाद बीजापुर के सुल्तान द्वारा शासित दक्कन में थी। उन्होंने मुसलमानों द्वारा किए जा रहे दमन और धार्मिक उत्पीड़न को इतना असहनीय पाया कि 16 वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते उन्हें विश्वास हो गया कि हिन्दुओं की मुक्ति के लिए ईश्वर ने उन्हें नियुक्त किया है। उनका यही विश्वास जीवन भर उनका मार्गदर्शन करता रहा। उनकी विधवा माता, जो स्वतंत्र विचारों वाली हिन्दू कुलीन महिला थी, ने जन्म से ही उन्हें दबे-कुचले हिंदुओं के अधिकारों के लिए लड़ने और मुस्लिम शासकों को उखाड़ फैंकने की शिक्षा दी थी। अपने अनुयायियों का दल संगठित कर उन्होंने लगभग 1655 में बीजापुर की कमज़ोर सीमा चौकियों पर कब्ज़ा करना शुरू किया। इसी दौर में उन्होंने सुल्तानों से मिले हुए स्वधर्मियों को भी समाप्त कर दिया। इस तरह उनके साहस व सैन्य निपुणता तथा हिन्दुओं को सताने वालों के प्रति कड़े रूख ने उन्हें आम लोगों के बीच लोकप्रिय बना दिया। उनकी विध्वंसकारी गतिविधियाँ बढ़ती गई और उन्हें सबक सिखाने के लिए अनेक छोटे सैनिक अभियान असफल ही सिद्ध हुए। जब 1659 में बीजापुर के सुल्तान ने उनके ख़िलाफ़ अफ़ज़ल ख़ाँ के नेतृत्व में 10,000 लोगों की सेना भेजी तब शिवाजी ने डरकर भागने का नाटक कर सेना को कठिन पहाड़ी क्षेत्र में फुसला कर बुला लिया और आत्मसमर्पण करने के बहाने एक मुलाकात में अफ़ज़ल ख़ाँ की हत्या कर दी। उधर पहले से घात लगाए उनके सैनिकों ने बीजापुर की बेख़बर सेना पर अचानक हमला करके उसे खत्म कर डाला, रातों रात शिवाजी एक अजेय योद्धा बन गए। जिनके पास बीजापुर की सेना की बंदूकें, घोड़े और गोला-बारूद का भंडार था। शक्ति में वृद्धि शिवाजी की बढ़ती हुई शक्ति से चिंतित हो कर मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब ने दक्षिण में नियुक्त अपने सूबेदार को उन पर चढ़ाई करने का आदेश दिया। उससे पहले ही शिवाजी ने आधी रात को सूबेदार के शिविर पर हमला कर दिया। जिसमें सूबेदार के एक हाथ की उंगलियाँ कट गई और उसका बेटा मारा गया। इससे सूबेदार को पीछे हटना पड़ा। शिवाजी ने मानों मुग़लों को और चिढ़ाने के लिए संपन्न तटीय नगर सूरत पर हमला कर दिया और भारी संपत्ति लूट ली। इस चुनौती की अनदेखी न करते हुए औरंगज़ेब ने अपने सबसे प्रभावशाली सेनापति मिर्जा राजा जयसिंह के नेतृत्व में लगभग 1,00,000 सैनिकों की फ़ौज भेजी। इतनी बड़ी सेना और जयसिंह की हिम्मत और दृढ़ता ने शिवाजी को शांति समझौते पर मजबूर कर दिया। शिवाजी और जयसिंह शिवाजी को कुचलने के लिए राजा जयसिंह ने बीजापुर के सुल्तान से संधि कर पुरन्दर के क़िले को अधिकार में करने की अपने योजना के प्रथम चरण में 24 अप्रैल, 1665 ई. को 'व्रजगढ़' के क़िले पर अधिकार कर लिया। पुरन्दर के क़िले की रक्षा करते हुए शिवाजी का अत्यन्त वीर सेनानायक 'मुरार जी बाजी' मारा गया। पुरन्दर के क़िले को बचा पाने में अपने को असमर्थ जानकर शिवाजी ने महाराजा जयसिंह से संधि की पेशकश की। दोनों नेता संधि की शर्तों पर सहमत हो गये और 22 जून, 1665 ई. को 'पुरन्दर की सन्धि' सम्पन्न हुई। सन्धि की शर्तें इतिहास प्रसिद्ध इस सन्धि की प्रमुख शर्तें निम्नलिखित थीं- शिवाजी को मुग़लों को अपने 23 क़िले, जिनकी आमदनी 4 लाख हूण प्रति वर्ष थी, देने थे। सामान्य आय वाले, लगभग एक लाख हूण वार्षिक की आमदनी वाले, 12 क़िले शिवाजी को अपने पास रखने थे। शिवाजी ने मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब की सेवा में अपने पुत्र शम्भाजी को भेजने की बात मान ली एवं मुग़ल दरबार ने शम्भाजी को 5000 का मनसब एवं उचित जागीर देना स्वीकार किया। मुग़ल सेना के द्वारा बीजापुर पर सैन्य अभियान के दौरान बालाघाट की जागीरें प्राप्त होती, जिसके लिए शिवाजी को मुग़ल दरबार को 40 लाख हूण देना था।
आगरा यात्रा अपनी सुरक्षा का पूर्ण आश्वासन प्राप्त कर शिवाजी आगरा के दरबार में औरंगज़ेब से मिलने के लिए तैयार हो गये। वह 9 मई, 1666 ई को अपने पुत्र शम्भाजी एवं 4000 मराठा सैनिकों के साथ मुग़ल दरबार में उपस्थित हुए, परन्तु औरंगज़ेब द्वारा उचित सम्मान न प्राप्त करने पर शिवाजी ने भरे हुए दरबार में औरंगज़ेब को 'विश्वासघाती' कहा, जिसके परिणमस्वरूप औरंगज़ेब ने शिवाजी एवं उनके पुत्र को 'जयपुर भवन' में क़ैद कर दिया। वहाँ से शिवाजी 13 अगस्त, 1666 ई को फलों की टोकरी में छिपकर फ़रार हो गये और 22 सितम्बर, 1666 ई. को रायगढ़ पहुँचे। कुछ दिन बाद शिवाजी ने मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब को पत्र लिखकर कहा कि "यदि सम्राट उसे (शिवाजी) को क्षमा कर दें तो वह अपने पुत्र शम्भाजी को पुनः मुग़ल सेवा में भेज सकते हैं।" औरंगज़ेब ने शिवाजी की इन शर्तों को स्वीकार कर उसे 'राजा' की उपाधि प्रदान की। जसवंत सिंह की मध्यस्थता से 9 मार्च, 1668 ई. को पुनः शिवाजी और मुग़लों के बीच सन्धि हुई। इस संधि के बाद औरंगज़ेब ने शिवाजी को बरार की जागीर दी तथा उनके पुत्र शम्भाजी को पुनः उसका मनसब 5000 प्रदान कर दिया। सन्धि का उल्लंघन 1667-1669 ई. के बीच के तीन वर्षों का उपयोग शिवाजी ने विजित प्रदेशों को सुदृढ़ करने और प्रशासन के कार्यों में बिताया। 1670 ई. में शिवाजी ने 'पुरन्दर की संधि' का उल्लंघन करते हुए मुग़लों को दिये गये 23 क़िलों में से अधिकांश को पुनः जीत लिया। तानाजी मालसुरे द्वारा जीता गया 'कोंडाना', जिसका फ़रवरी, 1670 ई. में शिवाजी ने नाम बदलकर 'सिंहगढ़' रखा दिया था, सर्वाधिक महत्वपूर्ण क़िला था। 13 अक्टूबर, 1670 ई. को शिवाजी ने तीव्रगति से सूरत पर आक्रमण कर दूसरी बार इस बन्दरगाह नगर को लूटा। शिवाजी ने अपनी इस महत्वपूर्ण सफलता के बाद दक्षिण की मुग़ल रियासतों से हीं नहीं, बल्कि उनके अधीन राज्यों से भी 'चौथ' एवं 'सरदेशमुखी' लेना आरम्भ कर दिया। 15 फ़रवरी, 1671 ई. को 'सलेहर दुर्ग' पर भी शिवाजी ने क़ब्ज़ा कर लिया। शिवाजी के विजय अभियान को रोकने के लिए औरंगज़ेब ने महावत ख़ाँ एवं बहादुर ख़ाँ को भेजा। इन दोनों की असफलता के बाद औरंगज़ेब ने बहादुर ख़ाँ एवं दिलेर ख़ाँ को भेजा। इस तरह 1670-1674 ई. के मध्य हुए सभी मुग़ल आक्रमणों में शिवाजी को ही सफलता मिली और उन्होंने सलेहर, मुलेहर, जवाहर एवं रामनगर आदि क़िलों पर अधिकार कर लिया। 1672 ई. में शिवाजी ने पन्हाला दुर्ग को बीजापुर से छीन लिया। मराठों ने पाली और सतारा के दुर्गों को भी जीत लिया। राजनीतिक स्थिति दक्षिण की तत्कालीन राजनीतिक स्थिति भी एक सशक्त मराठा आंदोलन के उदय में सहायक हुई। अहमद नगर राज्य के बिखराव और अकबर की मृत्यु के पश्चात दक्षिण में मुग़ल साम्राज्य के विस्तार की धीमी गति ने महत्त्वाकांक्षी सैन्य अभियानों को प्रोत्साहित किया। यह भी उल्लेखनीय है कि इस समय तक मराठे अनुभवी लड़ाके जाति के रूप में ख्याति प्राप्त कर चुके थे। दक्षिणी सल्तनतों एवं मुग़लों, दोनों ही पक्षों की ओर से वे सफलतापूर्वक युद्ध कर चुके थे। उनके पास आवश्यक सैन्य प्रशिक्षण और अनुभव तो था ही, जब समय आया तो उन्होंने इसका उपयोग राज्य की स्थापना के लिए किया। यह कहना तो कठिन है कि मराठों के उत्थान में उपर्युक्त तथ्य कहाँ तक उत्तरदायी थे और इसमें अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करने की दृढ़ इच्छा शक्ति का कितना हाथ था। फिर भी, यदि शिवाजी की नीतियों के सामाजिक पहलुओं और उनका साथ देने वाले लोगों की सामाजिक स्थिति का विश्लेषण किया जाए तो स्थिति बहुत सीमा तक स्पष्ट हो सकती है। किसानों के साथ सीधा संबंध शिवाजी महाराज की प्रतिमा, जीजामाता के साथ इतिहासकार बड़े उत्साहपूर्वक शिवाजी के क्रांतिकारी भू-कर सुधारों की बात करते हैं, जिन्होंने उदीयमान राज्य को एक विस्तृत सामाजिक आधार प्रदान किया। रानाडे लिखते हैं, 'शिवाजी ने दृढ़ निश्चय कर लिया था कि वे किसी भी नागरिक या सैन्य प्रमुख को जागीरें नहीं देंगे। भारत में केंद्र विमुख एवं बिखराव की प्रवृत्तियाँ सदा ही बलवान रही हैं, और जागीरें देने की प्रथा, जागीरदारों को भू-कर से प्राप्त धन द्वारा अलग से अपनी सेना रखने की अनुमति देने से यह प्रवृत्ति इतनी प्रबल हो जाती है कि सुव्यवस्थित शासन लगभग असंभव हो जाता है––अपने शासन काल में शिवाजी ने केवल मंदिरों को एवं दान धर्म की दिशा में ही भूमि प्रदान की थी।' जदुनाथ सरकार ने भी उपर्युक्त मत का ही समर्थन किया है और कहा है कि शिवाजी किसानों को अपनी ओर इसीलिए कर सके कि उन्होंने ज़मीदारी और जागीरदारी प्रथा को बंद किया और राजस्व प्रशासन के माध्यम से किसानों के साथ सीधा संबंध स्थापित किया। सिंहगढ़ क़िला, पुणे किंतु सभासद का ध्यानपूर्वक अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि शिवाजी के राजस्व प्रशासन के संबंध में ऐसे बड़े-बड़े दावे करना निराधार है और इसे जल्दबाज़ी में बनाई गई धारणा ही कहा जाएगा। उनका कहना है कि शिवाजी ने देसाईयों के दुर्गों और सुदृढ़ जमाव को नष्ट किया और जहाँ कहीं मज़बूत क़िले थे वहाँ अपनी दुर्ग-सेना रखी। उनका यह भी कहना है कि शिवाजी ने मिरासदारों द्वारा मनमाने ढंग से वसूल किए जाने वाले उपहारों या हज़ारे को बंद करवाया और नक़द एवं अनाज के रूप में गाँवों से जमींदारों का हिस्सा निश्चित किया। साथ ही उन्होंने देशमुखों, देशकुलकर्णियों, पाटिलों और कुलकर्णियों के अधिकार एवं अनुलाभ भी तय किए, इन्हीं कथनों से प्रेरित होकर आधुनिक इतिहासकार कहते हैं कि शिवाजी ने भूमि प्रदान करने की प्रथा को समाप्त कर दिया था। यह सत्य है कि सभासद ऐसी संभावना की बात करता है किंतु कदाचित यह शिवाजी या स्वयं सभासद का अपेक्षित आदर्श रहा हो, क्योंकि वह स्वयं एकाधिक स्थानों पर शिवाजी द्वारा भूमि प्रदान किए जाने की बात कहता है। यही लक्ष्य एक अन्य तत्कालीन रचना आज्ञापत्र में ध्वनित होता है, जिसमें कहा गया है कि वर्तमान वतन वैसे ही चलते रहेंगे और उनके पास जो भी है उसमें थोड़ी भी वृद्धि नहीं की जाएगी और न ही उसे रत्ती भर कम किया जाएगा। इसमें यह चेतावनी भी दी गई है कि 'किसी वृत्ति (वतन) का प्रत्यादान करना पाप है---भले ही वह कितनी ही छोटी क्यों न हो।' उचित संदर्भ में रखे जाने पर सभासद के कथन का अर्थ स्पष्ट हो जाता है। पाटिल, कुलकर्णी और देशमुख राजस्व एकत्र करते थे और उसमें से राज्य को अपनी इच्छानुसार अंश देते थे जो प्रायः बहुत कम होता था। धीरे-धीरे उन्होंने अपनी स्थिति अत्यंत सुदृढ़ कर ली, दुर्ग इत्यादि बनवा लिए, और प्यादे एवं बंदूकची लेकर चलने लगे। वे सरकारी राजस्व अधिकारी की परवाह नहीं करते थे और यदि वह अधिक राजस्व की माँग करता था तो लड़ाई-झगड़े पर उतर आते थे। यह वर्ग विद्रोही हो उठा था। इन्हीं की गढ़ियों और दुर्गों पर शिवाजी ने धावा बोला था। शिवाजी महाराज की प्रतिमा, महाराष्ट्र
राजस्व वसूली स्पष्ट है कि शिवाजी शांतिप्रिय ज़मीदारों के नहीं अपितु केवल उन्हीं के विरुद्ध थे जो उनके राजनीतिक हितों के लिए गंभीर ख़तरा बन गए थे। स्पष्ट है कि वे राजस्व वसूली की संपूर्ण मशीनरी को समाप्त नहीं कर सकते थे। इसलिए ऐसा नहीं है कि इसके स्थान पर नई व्यवस्था लाने के लिए उनके पास प्रशिक्षित व्यक्ति नहीं थे। वे केवल इतना चाहते थे कि राजस्व की गड़बड़ी दूर हो और राज्य को उचित अंश मिले। यह भी स्पष्ट है कि शिवाजी को बड़े देशमुखों के विरोध का सामना करना पड़ा। ये देशमुख स्वतंत्र मराठा राज्य के पक्ष में नहीं थे और बीजापुर के सांमत ही बने रहना चाहते थे जिससे अपने वतनों के प्रशासन में अधिक स्वायत्त रह सकें। यही शिवाजी का धर्मसंकट था। देशमुखों के समर्थन के बिना वे स्वतंत्र मराठा राज्य की स्थापना नहीं कर सकते थे। अतः शिवाजी ने इस नाज़ुक राजनीतिक स्थिति का सामना करने के लिए भय और प्रीति की नीति अपनाई। कुछ बड़े देशमुखों को तो उन्होंने सैन्य शक्ति से पराजित किया और कुछ के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किए। बड़े देशमुखों के साथ शिवाजी की इस अनोखी लड़ाई में छोटे देशमुखों ने शिवाजी का साथ दिया। बड़े देशमुख छोटे देशमुखों को सताते थे और ज़मीन की बंदोबस्ती और कृषि को बढ़ावा देने की शिवाजी की नीति छोटे देशमुखों के लिए हितकर थी। संपूर्ण दक्षिण पर शिवाजी के सरदेशमुखी के दावे को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त मोरे, शिर्के और निंबालकर देशमुखों के परिवारों में विवाह संबंध करके भी शिवाजी ने अपना सामाजिक रुतबा बढ़ाया। इससे मराठा समाज में उनकी सम्मानजनक स्वीकृति सरल हो गई। मुग़लों और दक्षिणी राज्यों के साथ संबंध यद्यपि मराठे पहले ही अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने के प्रति सचेत होने लगे थे फिर भी उन्हें संगठित करने और उनमें एक राजनीतिक लक्ष्य के प्रति चेतना जगाने का कार्य शिवाजी ने ही किया। शिवाजी की प्रगति का लेखा मराठों के उत्थान को प्रतिबिंबित करता है। 1645-47 के बीच 18 वर्ष की अवस्था में उन्होंने पूना के निकट अनेक पहाड़ी क़िलों पर विजय प्राप्त की। जैसे- रायगढ़, कोडंना और तोरना। फिर 1656 में उन्होंने शक्तिशाली मराठा प्रमुख चंद्रराव मोरे पर विजय प्राप्त की और जावली पर अधिकार कर लिया, जिसने उन्हें उस क्षेत्र का निर्विवाद स्वामी बना दिया और सतारा एवं कोंकण विजय का मार्ग प्रशस्त कर दिया। शिवाजी की इन विस्तारवादी गतिविधियों से बीजापुर का सुल्तान शंकित हो उठा किंतु उसके मंत्रियों ने सलाह दी कि वह फिलहाल चुपचाप स्थिति पर निगाह रखे। किंतु जब शिवाजी ने कल्याण पर अधिकार कर लिया और कोंकण पर धावा बोल दिया तो सुल्तान आपा खो बैठा और उसने शाहजी को क़ैद करके उनकी जागीर छीन ली। इससे शिवाजी झुकने के लिए विवश हो गए और उन्होंने वचन दिया कि वे और हमले नहीं करेंगे। किंतु उन्होंने बड़ी चतुराई से मुग़ल शाहजादा मुराद, जो मुग़ल सूबेदार था, से मित्रता स्थापित की और मुग़लों की सेवा में जाने की बात कही। इससे बीजापुर के सुल्तान की चिंता बढ़ गई और उसने शाहजी को मुक्त कर दिया। शाहजी ने वादा किया कि उसका पुत्र अपनी विस्तारवादी गतिविधियाँ छोड़ देगा। अतः अगले छः वर्षों तक शिवाजी धीरे-धीरे अपनी शक्ति सृदृढ़ करते रहे। इसके अतिरिक्त मुग़लों के भय से मुक्त बीजापुर मराठा गतिविधियों का दमन करने में सक्षम था—इस कारण भी शिवाजी को शांति बनाए रखने के लिए विवश होना पड़ा। किंतु जब औरंगज़ेब उत्तर चला गया तो शिवाजी ने अपनी विजयों का सिलसिला फिर आरंभ कर दिया। जिसकी कीमत चुकानी पड़ी बीजापुर को। जब 1659 में बीजापुर के सुल्तान ने उनके ख़िलाफ़ अफ़ज़ल ख़ाँ के नेतृत्व में 10,000 लोगों की सेना भेजी। अफ़ज़ल ख़ाँ ने शिवाजी को निमंत्रण भेजा और वादा किया कि वह उन्हें सुल्तान से माफ़ी दिलवा देगा। किंतु ब्राह्मणदूत कृष्णजी भाष्कर ने अफ़ज़ल ख़ाँ का वास्तविक उद्देश्य शिवाजी को बता दिया। सारी बात जानते हुए शिवाजी किसी भी धोखे का सामना करने के लिए शिवाजी तैयार होकर गए और अरक्षित होकर जाने का नाटक किया। गले मिलने के बहाने अफ़ज़ल ख़ाँ ने शिवाजी का गला दबाने का प्रयास किया किंतु शिवाजी तो तैयार होकर आए थे—उन्होंने बघनख से उसका काम तमाम कर दिया। [सम्पादन]अफ़ज़ल ख़ाँ के साथ युद्ध उन्होंने समुद्र और घाटों के बीच तटीय क्षेत्र कोंकण पर धावा बोल दिया और उसके उत्तरी भाग पर अधिकार कर लिया। स्वाभाविक था कि बीजापुर का सुल्तान उनके विरुद्ध सख्त कार्रवाई करता। उसने अफ़ज़ल ख़ाँ के नेतृत्व में 10,000 सैनिकों की टुकड़ी शिवाजी को पकड़ने के लिए भेजी। उन दिनों छल-कपट और विश्वासघात की नीति अपनाना आम बात थी और शिवाजी और अफ़ज़ल ख़ाँ दोनों ने ही अनेक अवसरों पर इसका सहारा लिया। शिवाजी की सेना को खुले मैदान में लड़ने का अभ्यास नहीं था, अतः वह अफ़ज़ल ख़ाँ के साथ युद्ध करने से कतराने लगा। अफ़ज़ल ख़ाँ ने शिवाजी को निमंत्रण भेजा और वादा किया कि वह उन्हें सुल्तान से माफ़ी दिलवा देगा। किंतु ब्राह्मणदूत कृष्णजी भाष्कर ने अफ़ज़ल ख़ाँ का वास्तविक उद्देश्य शिवाजी को बता दिया। सारी बात जानते हुए शिवाजी किसी भी धोखे का सामना करने के लिए शिवाजी तैयार होकर गए और अरक्षित होकर जाने का नाटक किया। गले मिलने के बहाने अफ़ज़ल ख़ाँ ने शिवाजी का गला दबाने का प्रयास किया किंतु शिवाजी तो तैयार होकर आए थे—उन्होंने बघनख से उसका काम तमाम कर दिया। इस घटना को लेकर ग्रांट डफ़ जैसे यूरोपीय इतिहासकार शिवाजी पर विश्वासघात और हत्या का आरोप लगाते हैं जो सरासर ग़लत है क्योंकि शिवाजी ने आत्मरक्षा में ही ऐसा किया था। इस विजय से मित्र और शत्रु दोनों ही पक्षों में शिवाजी का सम्मान बढ़ गया। दूरदराज़ के इलाकों से जवान उनकी सेना में भरती होने के लिए आने लगे। शिवाजी में उनकी अटूट आस्था थी। इस बीच दक्षिण में मराठा शक्ति के इस चमत्कारी उत्थान पर औरंगज़ेब बराबर दृष्टि रखे हुए था। पूना और उसके आसपास के क्षेत्रों, जो अहमद नगर राज्य के हिस्से थे और 1636 की संधि के अंतर्गत बीजापुर को सौंप दिए गए थे, को अब मुग़ल वापस माँगने लगे। पहले तो बीजापुर ने मुग़लों की इस बात को मान लिया था कि वह शिवाजी से निपट लेगा और इस पर कुछ सीमा तक अमल भी किया गया किंतु बीजापुर का सुल्तान यह भी नहीं चाहता था कि शिवाजी पूरी तरह नष्ट हो जाएँ। क्योंकि तब उसे मुग़लों का सीधा सामना करना पड़ता। औरंगज़ेब ने अपने संबंधी शाइस्ता ख़ाँ को शिवाजी से निपटने की ज़िम्मेदारी सौंपी। शाइस्ता ख़ाँ दक्षिणी सूबे का सूबेदार था। आत्मविश्वास भरे सूबेदार शाहस्ता ख़ाँ ने पूना पर कब्ज़ा कर लिया, चाकण के क़िलों को अपने अधिकार में ले लिया और दो वर्षों के भीतर ही उसने कल्याण सहित संपूर्ण उत्तरी कोंकण पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। केवल दक्षिण कि कुछ जागीरें ही शिवाजी के पास रह गईं। शाइस्ता ख़ाँ को आशा थी कि वर्षा समाप्त होने पर वह उन्हें भी जीत लेगा। शिवाजी ने इस अवसर का लाभ उठाया। उन्होंने चुने हुए चार सौ सिपाही लेकर बारात का साज सजाया और पूना में प्रविष्ट हो गए। आधी रात के समय उन्होंने सूबेदार के घर धावा बोल दिया। सूबेदार और उसके सिपाही तैयार नहीं थे। नौकरानी की होशियारी से शाइस्ता ख़ाँ तो बच निकला किंतु मुग़ल सेना को मौत के घाट उतार दिया गया। इस घटना ने मुग़ल साम्राज्य की शान को घटाया और शिवाजी के हौसले तथा प्रतिष्ठा को बढ़ा दिया। औरंगज़ेब के क्रोध की सीमा न रही। जसवंत सिंह की निष्ठा पर संदेह हुआ और शाइस्ता ख़ाँ को बंगाल भेज दिया। इस बीच शिवाजी ने एक और दुस्साहिक अभियान किया। उन्होंने सूरत पर धावा बोल दिया। सूरत मुग़लों का एक महत्त्वपूर्ण क़िला था। शिवाजी ने उसे जी भर कर लूटा (1664) और धनदौलत से लद कर घर लौटे। 1665 ई. के आरंभ में औरंगज़ेब ने राजा जयसिंह के नेतृत्व में एक अन्य सेना शिवाजी का दमन करने के लिए भेजी। जयसिंह जो कि कछवाहा राजा था, युद्ध और शांति, दोनों ही की कलाओं में निपुण था। वह बड़ा चतुर कूटनीतिज्ञ था और उसने समझ लिया कि बीजापुर को जीतने के लिए शिवाजी से मैत्री करना आवश्यक है। अतः पुरन्धर के क़िले पर मुग़लों की विजय और रायगढ़ की घेराबंदी के बावजूद उसने शिवाजी से संधि की। पुरन्धर की यह संधि जून 1665 ई. में हुई जिसके अनुसार— शिवाजी को चार लाख हूण वार्षिक आमदनी वाले तेईस क़िले मुग़लों को सौंपने पड़े और उन्होंने अपने लिए सामान्य आय वाले केवल बारह क़िले रखे। मुग़लों ने शिवाजी के पुत्र सम्भाजी को पंज हज़ारी मन्सुबदारी एवं उचित जागीर देना स्वीकर किया। मुग़लों ने शिवाजी के विवेकरहित और बेवफ़ा व्यवहार को क्षमा करना स्वीकार कर लिया। शिवाजी को कोंकण और बालाघाट में जागीरें दी जानी थी जिनके बदले उन्हें मुग़लों को तेरह किस्तों में चालीस लाख हूण की रक़म अदा करनी थी। साथ ही उन्हें बीजापुर के ख़िलाफ़ मुग़लों की सहायता भी करनी थी। शाही नौकरी यह संधि राजा जयसिंह की व्यक्तिगत विजय थी। वह न केवल शक्तिशाली शत्रु पर काबू पाने में सफल रहा था अपितु उसने बीजापुर राज्य के विरुद्ध उसका सहयोग भी प्राप्त कर लिया था। किंतु उसका परिणाम अच्छा नहीं हुआ। दरबार में शिवाजी को पाँच हज़ारी मनसुबदारों की श्रेणी में रखा गया। यह ओहदा उनके नाबालिग पुत्र को पहले ही प्रदान कर दिया गया था। इसे शिवाजी ने अपना अपमान समझा। बादशाह का जन्मदिन मनाया जा रहा था और उसके पास शिवाजी से बात करने की फुर्सत भी नहीं थी अपमानित होकर शिवाजी वहाँ से चले आए और उन्होंने शाही नौकरी करना अस्वीकार कर दिया। तुरंत मुग़ल अदब के ख़िलाफ़ कार्य करने के लिए उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। दरबारियों का गुट उन्हें दंड दिए जाने के पक्ष में था किंतु जयसिंह ने बादशाह से प्रार्थना की कि मामले में नरमी बरतें। किंतु कोई भी निर्णय लिए जाने से पूर्व ही शिवाजी क़ैद से भाग निकले। उच्चकुल क्षत्रिय इसमें कोई संदेह नहीं कि शिवाजी की आगरा यात्रा मुग़लों के साथ मराठों के संबंधों की दृष्टि से निर्णायक सिद्ध हुई। औरंगज़ेब शिवाजी को मामूली भूमिस समझता था। बाद की घटनाओं ने सिद्ध किया कि शिवाजी के प्रति औरंगज़ेब का दृष्टिकोण, शिवाजी के महत्त्व को अस्वीकार करना और उनकी मित्रता के मूल्य को न समझना राजनीतिक दृष्टि से उसकी बहुत बड़ी भूल थी। शिवाजी के संघर्ष की तार्किक पूर्णाहूति हुई 1647 ई. में छत्रपति के रूप में उनका औपचारिक राज्याभिषेक हुआ। स्थानीय ब्राह्मण शिवाजी के राज्यारोहण के उत्सव में भाग लेने के इच्छुक नहीं थे क्योंकि उनकी दृष्टि में शिवाजी उच्च कुल क्षत्रिय नहीं थे। अतः उन्होंने वाराणसी के एक ब्राह्मण गंगा भट्ट को इस बात के लिए सहमत किया कि वह उन्हें उच्चकुल क्षत्रिय और राजा घोषित करे। इस एक व्यवस्था से होकर शिवाजी दक्षिणी सुल्तानों के समकक्ष हो गए और उनका दर्जा विद्रोही का न रहकर एक प्रमुख़ का हो गया। अन्य मराठा सरदारों के बीच भी शिवाजी का रुतबा बढ़ गया। उन्हें शिवाजी की स्वाधीनता स्वीकार करनी पड़ी और मीरासपट्टी कर भी चुकाना पड़ा। राज्यारोहण के पश्चात शिवाजी की प्रमुख उपलब्धि थी 1677 में कर्नाटक क्षेत्र पर उनकी विजय जो उन्होंने कुतुबशाह के साथ मिलकर प्राप्त की थी। जिन्जी, वेल्लेर और अन्य दुर्गों की विजय ने शिवाजी की प्रतिष्ठा में वृद्धि की। दुर्गों पर नियंत्रण शिवाजी ने कई दुर्गों पर अधिकार किया जिनमें से एक था सिंहगढ़ दुर्ग, जिसे जीतने के लिए उन्होंने ताना जी को भेजा था। और वे वहाँ से विजयी हुए। ताना जी शिवाजी के बहुत विश्वासपात्र सेनापति थे। जिन्होंने सिंहगढ़ की लड़ाई में वीरगति पाई थी। ताना जी के पास बहुत अच्छी तरह से सधाई हुई गोह थी। जिसका नाम यशवन्ती था। शिवाजी ने ताना जी की मृत्यु पर कहा था- गढ़ आला पण सिंह गेला (गढ़ तो हमने जीत लिया पर सिंह हमें छोड़ कर चला गया)। बीजापुर के सुल्तान की राज्य सीमाओं के अंतर्गत रायगढ़ (1646) में चाकन, सिंहगढ़ और पुरन्दर सरीखे दुर्ग भी शीघ्र उनके अधिकारों में आ गये। 1655 ई. तक शिवाजी ने कोंकण में कल्याण और जाबली के दुर्ग पर भी अधिकार कर लिया। उन्होंने जाबली के राजा चंद्रदेव का बलपूर्वक वध करवा दिया। शिवाजी की राज्य विस्तार की नीति से क्रुद्ध होकर बीजापुर के सुल्तान ने 1659 ई. में अफ़ज़ल ख़ाँ नामक अपने एक वरिष्ठ सेनानायक को विशाल सैन्य बल सहित शिवाजी का दमन करने के लिए भेजा। दोनों पक्षों को अपनी विजय का पूर्ण विश्वास नहीं था। अतः उन्होंने संधिवार्ता प्रारम्भ कर दी। दोनों की भेंट के अवसर पर अफ़ज़ल ख़ाँ ने शिवाजी को दबोच कर मार डालने का प्रयत्न किया। परन्तु वे इसके प्रति पहले से ही सजग थे। उन्होंने अपने गुप्त शस्त्र बघनखा का प्रयोग करके मुसलमान सेनानी का पेट फाड़ डाला। जिससे उसकी तत्काल मृत्यु हो गई। तदुपरान्त शिवाजी ने एक विकट युद्ध में बीजापुर की सेनाओं को परास्त कर दिया। इसके बाद बीजापुर के सुल्तान ने शिवाजी का सामना करने का साहस नहीं किया। छत्रपति शिवाजी महाराज का सिक्का अब उन्हें एक और प्रबल शत्रु मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब का सामना करना पड़ा। 1660 ई. में औरंगजेब ने अपने मामा शायस्ता ख़ाँ नामक सेनाध्यक्ष शिवाजी के विरुद्ध भेजा। शायस्ता ख़ाँ ने शिवाजी के कुछ दुर्गों पर अधिकार करके उनके केन्द्र-स्थल पूना पर भी अधिकार कर लिया। किन्तु शीघ्र ही शिवाजी ने अचानक रात्रि में शायस्ता ख़ाँ पर आक्रमण कर दिया। जिससे उसको अपना एक पुत्र अपने हाथ की तीन अँगुलियाँ गँवाकर अपने प्राण बचाने पड़े। शायस्ता ख़ाँ को वापस बुला लिया गया। फिर भी औरंगज़ेब ने शिवाजी के विरुद्ध नये सेनाध्यक्षों की संरक्षा में नवीन सैन्यदल भेजकर युद्ध जारी रखा। शिवाजी ने 1664 ई. में मुग़लों के अधीनस्थ सूरत को लूट लिया, किन्तु मुग़ल सेनाध्यक्ष मिर्जा राजा जयसिंह ने उनके अधिकांश दुर्गों पर अधिकार कर लिया, जिससे शिवाजी को 1665 ई. में पुरन्दर की संधि करनी पड़ी। उसके अनुसार उन्होंने केवल 12 दुर्ग अपने अधिकार में रखकर 23 दुर्ग मुग़लों को दे दिये और राजा जयसिंह द्वारा अपनी सुरक्षा के प्रति आश्वस्त होकर आगरा में मुग़ल दरबार में उपस्थित होने के लिए प्रस्थान किया। आगरा से बच निकलना शिवाजी नहीं हारे और अपनी बीमारी का बहाना बनाया। उन्होंने मिठाई के बड़े-बड़े टोकरे ग़रीबों में बाँटने के लिए भिजवाने शुरू किए। 17 अगस्त 1666 को वह अपने पुत्र के साथ टोकरे में बैठकर पहरेदारों के सामने से छिप कर निकल गए। उनका बच निकलना, जो शायद उनके नाटकीय जीवन का सबसे रोमांचक कारनामा था, भारतीय इतिहास की दिशा बदलने में निर्णायक साबित हुआ। उनके अनुगामियों ने उनका अपने नेता के रूप में स्वागत किया और दो वर्ष के समय में उन्होंने न सिर्फ़ अपना पुराना क्षेत्र हासिल कर लिया, बल्कि उसका विस्तार भी किया। वह मुग़ल ज़िलों से धन वसूलते थे और उनकी समृद्ध मंडियों को भी लूटते थे। उन्होंने अपनी सेना का पुनर्गठन किया और प्रजा की भलाई के लिए अपेक्षित सुधार किए। अब तक भारत में पाँव जमा चुके पुर्तग़ाली और अंग्रेज़ व्यापारियों से सीख ले कर उन्होंने नौसेना का गठन शुरू किया। इस प्रकार आधुनिक भारत में वह पहले शासक थे, जिन्होंने व्यापार और सुरक्षा के लिए नौसेना की आवश्यकता के महत्त्व को स्वीकार किया। शिवाजी के उत्कर्ष से क्षुब्ध होकर औरंगज़ेब ने हिन्दुओं पर अत्याचार करना शुरू कर दिया, उन पर कर लगाना, ज़बरदस्ती धर्म परिवर्तन कराए और मंदिरों को गिरा कर उनकी जगह पर मस्जिदें बनवाई। राज्याभिषेक मई 1666 ई. में शाही दरबार में उपस्थित होने पर उनके साथ तृतीय श्रेणी के मनसुबदारों से सदृश व्यवहार किया गया और उन्हें नज़रबंद कर दिया गया। किन्तु शिवाजी चालाकी से अपने अल्पवयस्क पुत्र शम्भुजी और अपने विश्वस्त अनुचरों सहित नज़रबंदी से भाग निकले। संन्यासी के वेश में द्रुतगामी अश्वों की सहायता से वे दिसम्बर 1666 ई. में अपने प्रदेश में पहुँच गये। अगले वर्ष औरंगज़ेब ने निरुपाय होकर शिवाजी को राजा की उपाधि प्रदान की, और इसके बाद दो वर्षों तक शिवाजी और मुग़लों के बीच शान्ति रही। शिवाजी महाराज का सिंहासन शिवाजी ने इन वर्षों में अपनी शासन-व्यवस्था संगठित की। 1671 ई. में उन्होंने मुग़लों से पुनः संघर्ष प्रारंभ किया और खानदेश के कुछ भू-भागों के स्थानीय मुग़ल पदाधिकारियों को सुरक्षा का वचन देकर उनसे चौथ वसूल करने का लिखित इकारारनामा ले लिया और दूसरी बार सूरत को लूटा। 6 जून 1674 ई. में रायगढ़ के दुर्ग में महाराष्ट्र के स्वाधीन शासक के रूप में उनका राज्याभिषेक हुआ। कर्नाटक अभियान राज्याभिषेक के बाद शिवाजी का अन्तिम महत्वपूर्ण अभियान 'कर्नाटक का अभियान' (1676 ई.) था। गोलकुण्डा के 'मदन्ना' एवं 'अकन्ना' के सहयोग से शिवाजी ने बीजापुर और कर्नाटक पर आक्रमण करना चाहा, परन्तु आक्रमण के पूर्व ही शिवाजी एवं कुतुबशाह के बीच संधि सम्पन्न हुई, जिसकी शर्तें इस प्रकार थीं- शिवाजी को कुतुबशाह ने प्रति वर्ष एक लाख हूण देना स्वीकार किया। दोनों ने कर्नाटक की सम्पत्ति को आपस में बांटने पर सहमति जताई। शिवाजी ने जिंजी एवं वेल्लोर जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों पर क़ब्ज़ा कर लिया। जिंजी को उन्होंने अपने राज्य की राजधानी बनाया। शिवाजी का संघर्ष जंजीरा टापू के अधिपति अबीसीनियाई सिद्दकियों से भी हुआ। सिद्दकियों पर अधिकार करने के लिए उन्होंने नौसेना का भी निर्माण किया था, परन्तु वह पुर्तग़ालियों से गोवा तथा सिद्दकियों से चैल और जंजीरा नहीं छीन सके। सिद्दकी पहले अहमदनगर के अधिपत्य को मानते थे, परन्तु 1638 ई. के बाद वे बीजापुर की अधीनता में आ गए। शिवाजी के लिए जंजीरा को जीतना अपने कोंकण प्रदेश की रक्षा के लिए आवश्यक था। 1669 ई. में उन्होंने दरिया सारंग के नेतृत्व में अपने जल बेड़े को जंजीरा पर आक्रमण करने के लिए भेजा। शिवाजी का प्रशासन सेनानायक के रूप में शिवाजी की महानता निर्विवाद रही है। किंतु नागरिक प्रशासक के रूप में उनकी क्षमता आज भी स्पष्ट रूप से स्वीकार नहीं की जाती। यूरोपीय इतिहासकारों में दृष्टि में मराठा प्रभुत्व, जो लूट पर आधारित था, को किसी भी प्रकार का कर लेने का अधिकार नहीं था। कुछ अन्य इतिहासकारों की मान्यता है कि शिवाजी के प्रशासन के पीछे कोई आधारभूत सिद्धांत नहीं था और इसी कारण प्रशासन के क्षेत्र में उनका कोई स्थायी योगदान नहीं रहा। शिवाजी की प्रशासनिक व्यवस्था काफ़ी सीमा तक दक्षिणी राज्यों और मुग़लों की प्रशासनिक व्यवस्था से प्रभावित थी। शिवाजी की मृत्यु के समय उनका पुर्तग़ालियों के अधिकार क्षेत्र के अतिरिक्त लगभग समस्त (मराठा) देश में फैला हुआ था। पुर्तग़ालियों का आधिपत्य उत्तर में रामनगर से बंबई ज़िले में गंगावती नदी के तट पर करवार तक था। शिवाजी की पूर्वी सीमा उत्तर में बागलना को छूती थी और फिर दक्षिण की ओर नासिक एवं पूना ज़िलों के बीच से होती हुई एक अनिश्चित सीमा रेखा के साथ समस्त सतारा और कोल्हापुर के ज़िले के अधिकांश भाग को अपने में समेट लेती थी। इस सीमा के भीतर आने वाले क्षेत्र को ही मरी अभिलेखों में शिवाजी का "स्वराज" कहा गया है। पश्चिमी कर्नाटक के क्षेत्र कुछ देर बाद सम्मिलित हुए। स्वराज का यह क्षेत्र तीन मुख्य भागों में विभाजित था और प्रत्येक भाग की देखभाल के लिए एक व्यक्ति को नियुक्त किया गया था- पूना से लेकर सल्हर तक का क्षेत्र कोंकण का क्षेत्र, जिसमें उत्तरी कोंकण भी सम्मिलित था, पेशवा मोरोपंत पिंगले के नियंत्रण में था। उत्तरी कनारा तक दक्षिणी कोंकण का क्षेत्र अन्नाजी दत्तों के अधीन था। दक्षिणी देश के ज़िले, जिनमें सतारा से लेकर धारवाड़ और कोफाल का क्षेत्र था, दक्षिणी पूर्वी क्षेत्र के अंतर्गत आते थे और दत्ताजी पंत के नियंत्रण में थे। इन तीन सूबों को पुनः परगनों और तालुकों में विभाजित किया गया था। परगनों के अंतर्गत तरफ़ और मौजे आते थे। हाल ही में जीते गए आषनी, जिन्जी, बैलोर, अन्सी एवं अन्य ज़िले, जिन्हें समयाभाव के कारण प्रशासनिक व्यवस्था के अंतर्गत नहीं लाया जा सका था, अधिग्रहण सेना की देखरेख में थे। छत्रपति शिवाजी टर्मिनस, मुंबई केंद्र में आठ मंत्रियों की परिषद् होती थी जिसे अष्ट प्रधान कहते थे जिसे किसी भी अर्थ में मंत्रिमडल नहीं कहा जा सकता था। शिवाजी अपने प्रधानमंत्री स्वयं थे और प्रशासन की बागडोर अपने ही हाथों में रखते थे। अष्ट प्रधान केवल उनके सचिवों के रूप में कार्य करते थे; वे न तो आगे बढ़कर कोई कार्य कर सकते थे और न ही नीति निर्धारण कर सकते थे। उनका कार्य शुद्ध रूप से सलाहकार का था। जब कभी उनकी इच्छा होती तो वे उनकी सलाह पर ध्यान देते भी थे अन्यथा सामान्यतः उनका कार्य शिवाजी के निर्दशों का पालन करना और उनके अपने विभागों की निगरानी करना मात्र होता था। संभव है कि शिवाजी पौरोहित्य एवं लेखा विभागों के काम-काज में दख़ल न देते हों किंतु इसका कारण उनकी प्रशासनिक अनुभवहीनता ही रही होगी। पेशवा का कार्य लोक हित का ध्यान रखना था। पंत आमात्य, आय-व्यय की लेखा परीक्षा करता था। मंत्री या वकनीस या विवरणकार राजा का रोज़नामचा रखता था। सुमंत या विदेश सचिव विदेशी मामलों की देखभाल करता था। पंत सचिव पर राजा के पत्राचार का दायित्व था। पंडितराव, विद्वानों और धार्मिक कार्यों के लिए दिए जाने वाले अनुदानों का दायित्व निभाता था। सेनापति एवं न्यायधीश अपना-अपना कार्य करते थे। वे क्रमशः सेना एवं न्याय विभाग के कार्यों की देखते थे। सेना शिवाजी ने अपनी एक स्थायी सेना बनाई थी और वर्षाकाल के दौरान सैनिकों को वहाँ रहने का स्थान भी उपलब्ध कराया जाता रहा था। शिवाजी की मृत्यु के समय उनकी सेना में 30-40 हज़ार नियमित और स्थायी रूप से नियुक्त घुड़सवार, एक लाख पदाति और 1260 हाथी थे। उनके तोपखानों के संबंध में ठीक-ठीक जानकारी उपलब्ध नहीं है। किंतु इतना ज्ञात है कि उन्होंने सूरत और अन्य स्थानों पर आक्रमण करते समय तोपखाने का उपयोग किया था। नागरिक प्रशासन की भाँति ही सैन्य-प्रशासन में भी समुचित संस्तर बने हुए थे। घुड़सवार सेना दो श्रेणियों में विभाजित थी- बारगीर व घुड़सवार सैनिक थे जिन्हें राज्य की ओर से घोड़े और शस्त्र दिए जाते थे सिल्हदार जिन्हें व्यवस्था आप करनी पड़ती थी। प्रतापगढ़ क़िला, महाराष्ट्र घुड़सवार सेना की सबसे छोटी इकाई में 25 जवान होते थे, जिनके ऊपर एक हवलदार होता था। पाँच हवलदारों का एक जुमला होता था। जिसके ऊपर एक जुमलादार होता था; दस जुमलादारों की एक हज़ारी होती थी और पाँच हज़ारियो के ऊपर एक पंजहज़ारी होता था। वह सरनोबत के अंतर्गत आता था। प्रत्येक 25 टुकड़ियों के लिए राज्य की ओर से एक नाविक और भिश्ती दिया जाता था। मराठा सैन्य व्यवस्था के विशिष्ट लक्षण थे क़िले। विवरणकारों के अनुसार शिवाजी के पास 250 क़िले थे। जिनकी मरम्मत पर वे बड़ी रक़म खर्च करते थे। प्रत्येक क़िले को तिहरे नियंत्रण में रखा जाता था जिसमें एक ब्राह्मण, एक मरा, एक कुनढ़ी होता था। ब्राह्मण नागरिक और राजस्व प्रशासन देखता था, शेष दो सैन्य संचालन और रसद के पहलुओं को देखते थे। यह आम धारणा है कि शिवाजी के सैनिकों को वेतन नगद दिया जाता था। किंतु उस समय की परिस्थितियों और क्षेत्र की सामान्य स्थिति को देखते हुए यह व्यवस्था भी एक आदर्श थी जिसे शिवाजी साकार करना चाहते थे। सिपाहियों, हवलदारों इत्यादि का वेतन या तो ख़जाने से दिया जाता था या ग्रामीण क्षेत्रों की बारत (आज्ञा) द्वारा जिनका भुगतान कारकून करते थे। किंतु निश्चित रक़म के लिए भूमि या गाँव देने की पहले से चली आ रही प्रथा को भी पूर्णतः समाप्त नहीं किया गया था। स्वतंत्र प्रभुसत्ता 1674 की ग्रीष्म ऋतु में शिवाजी ने धूमधाम से सिंहासन पर बैठकर स्वतंत्र प्रभुसत्ता की नींव रखी। दबी-कुचली हिन्दू जनता ने सहर्ष उन्हें नेता स्वीकार कर लिया। अपने आठ मंत्रियों की परिषद के ज़रिये उन्होंने छह वर्ष तक शासन किया। वह एक धर्मनिष्ठ हिन्दू थे। जो अपनी धर्मरक्षक भूमिका पर गर्व करते थे। लेकिन उन्होंने ज़बरदस्ती मुसलमान बनाए गए अपने दो रिश्तेदारों को हिन्दू धर्म में वापस लेने का आदेश देकर परंपरा तोड़ी। हालांकि ईसाई और मुसलमान बल प्रयोग के ज़रिये बहुसंख्य जनता पर अपना मत थोपते थे। शिवाजी ने इन दोनों संप्रदायों के आराधना स्थलों की रक्षा की। उनकी सेवा में कई मुसलमान भी शामिल थे। उनके सिंहासन पर बैठने के बाद सबसे उल्लेखनीय अभियान दक्षिण भारत का रहा, जिसमें मुसलमानों के साथ कूटनीतिक समझौता कर उन्होंने मुग़लों को समूचे उपमहाद्वीप में सत्ता स्थापित करने से रोक दिया। राजस्व प्रशासन शिवाजी ने भू-राजस्व एवं प्रशासन के क्षेत्र में अनेक क़दम उठाए। इस क्षेत्र की व्यवस्था पहले बहुत अच्छी नहीं थीं क्योंकि यह पहले कभी किसी राज्य का अभिन्न अंग नहीं रहा था। बीजापुर के सुल्तान, मुग़ल और यहाँ तक कि स्वयं मराठा सरदार भी अतिरिक्त उत्पादन को एक साथ ही लेते थे जो इजारेदारी या राजस्व कृषि की कुख्यात प्रथा जैसी ही व्यवस्था थी। मलिक अम्बर की राजस्व व्यवस्था में शिवाजी को आदर्श व्यवस्था दिखाई दी किंतु उन्होंने उसका अंधानुकरण नहीं किया। मलिक अम्बर तो माप की इकाइयों का मानकीकरण करने में असफल रहा था किंतु शिवाजी ने एक सही मानक इकाई स्थिर कर दी थी। उन्हारेंने रस्सी के माप के स्थान पर काठी और मानक छड़ी का प्रयोग आरंभ करवाया। बीस छड़ियों का एक बीघा होता है और 120 बीघे का एक चावर चवार होता था। शिवाजी के निदेशानुसार सन् 1679 ई. में अन्नाजी दत्तों ने एक विस्तृत भू-सर्वेक्षण करवाया जिसके परिणामस्वरूप एक नया राजस्व निर्धारण हुआ। अगले ही वर्ष शिवाजी की मृत्यु हो गई, इससे यह तर्क निरर्थक जान पड़ता है कि उन्होंने भूरास्व विभाग से बिचौलियों का अस्तित्व समाप्त कर दिया था और राजस्व उनके अधिकारी ही एकत्र करते थे। कुल उपज का 33% राजस्व के रूप में लिया जाता था जिसे बाद में बढ़ाकर 40% कर दिया गया था। राजस्व नगद या वस्तु के रूप में चुकाया जा सकता था। कृषकों को नियमित रूप से बीज और पशु ख़रीदने के लिए ऋण दिया जाता था जिसे दो या चार वार्षिक किश्तों में वसूल किया जाता था। अकाल या फ़सल ख़राब होने की आपात स्थिति में उदारतापूर्वक अनुदान एवं सहायता प्रदान की जाती थी। नए इलाक़े बसाने को प्रोत्साहन देने के लिए किसानों को लगानमुक्त भूमि प्रदान की जाती थी। यद्यपि निश्चित रूप से यह कहना कठिन है कि शिवाजी ने ज़मीदारी प्रथा को समाप्त कर दिया था। फिर भी उनके द्वारा भूमि एवं उपज के सर्वेक्षण और भूस्वामी बिचौलियों की स्वतंत्र गतिविधियों पर नियंत्रण लगाए जाने से ऐसी संभावना के संकेत मिलते हैं। उन्होंने बार-बार किए जाने वाले भू-हस्तांतरण पर प्रतिबंध लगाने का प्रयास भी किया यद्यपि इसे पूरी तरह समाप्त करना उनके लिए संभव नहीं था। इस सबको देखते हुए कहा जा सकता है कि इस नई व्यवस्था से किसान प्रसन्न हुए होंगे और उन्होंने इसका स्वागत किया होगा क्योंकि बीजापुरी सुल्तानों के अत्याचारी मराठा देशमुखों की व्यवस्था की तुलना में यह बहुत अच्छी थी। शिवाजी के शासन काल में राज्य की आय के दो और स्रोत थे-सरदेशमुखी और चौथ। उनका कहना था कि देश के वंशानुगत (और सबसे बड़े भी) होने के नाते और लोगों के हितों की रक्षा करने के बदले उन्हें सरदेशमुखी लेने का अधिकार है। चौथ के संबंध में इतिहासकार एक मत नहीं हैं। रानाडे के अनुसार यह 'सेना के लिए दिया जाने वाला अंशमात्र नहीं था जिसमें कोई नैतिक और क़ानूनी बाध्यता न होती, अपितु बाह्य शक्ति के आक्रमण से सुरक्षा प्रदान करने के बदले लिया जाने वाला कर था।' सरदेसाई इसे 'शत्रुता रखने वाले अथवा विजित क्षेत्रों से वसूल किया जाने वाला कर मानते हैं।' जदुनाथ सरकार के अनुसार 'यह मराठा आक्रमण से बचने की एवज़ में वसूले जाने वाले शुल्क से अधिक कुछ नहीं था। अतः इसे एक प्रकार का भयदोहन (दबावपूर्वक ऐंठना) ही कहा जाना चाहिए।' यह कहना भी अनुचित न होगा कि दक्षिण के सुल्तानों और मुग़लों ने मराठों को अपने इलाक़ों से ये दोनों कर वसूल करने का अधिकार दिया था जिसने इस उदीयमान राज्य को बड़ी सीमा तक वैधता प्रदान की थी। मराठा राज्य के संबंध में सतीशचंद्र के इस कथन से सहमत हुआ जा सकता है कि 'मराठा राज्य के अध्ययन से ज्ञात होता है कि मराठा आंदोलन, जो मुग़ल साम्राज्य के केंद्रीकरण के विरुद्ध क्षेत्रीय प्रतिक्रिया के रूप में आरंभ हुआ था, की परिणति शिवाजी द्वारा दक्षिण-मुग़ल प्रशासनिक व्यवस्था के मूलभूत सिद्धांतों को अपनाए जाने में हुई।" अन्तिम समय शिवाजी की कई पत्नियां और दो बेटे थे, उनके जीवन के अंतिम वर्ष उनके ज्येष्ठ पुत्र की धर्मविमुखता के कारण परेशानियों में बीते। उनका यह पुत्र एक बार मुग़लों से भी जा मिला था और उसे बड़ी मुश्किल से वापस लाया गया था। घरेलु झगड़ों और अपने मंत्रियों के आपसी वैमनस्य के बीच साम्राज्य की शत्रुओं से रक्षा की चिंता ने शीघ्र ही शिवाजी को मृत्यु के कगार पर पहुँचा दिया। मैकाले द्वारा 'शिवाजी महान' कहे जाने वाले शिवाजी की 1680 में कुछ समय बीमार रहने के बाद अपनी राजधानी पहाड़ी दुर्ग राजगढ़ में 3 अप्रैल को मृत्यु हो गई। उपसंहार इस प्रकार मुग़लों, बीजापुर के सुल्तान, गोवा के पुर्तग़ालियों और जंजीरा स्थित अबीसिनिया के समुद्री डाकुओं के प्रबल प्रतिरोध के बावजूद उन्होंने दक्षिण में एक स्वतंत्र हिन्दू राज्य की स्थापना की। धार्मिक आक्रामकता के युग में वह लगभग अकेले ही धार्मिक सहिष्णुता के समर्थक बने रहे। उनका राज्य बेलगांव से लेकर तुंगभद्रा नदी के तट तक समस्त पश्चिमी कर्नाटक में विस्तृत था। इस प्रकार शिवाजी एक साधारण जागीरदार के उपेक्षित पुत्र की स्थिति से अपने पुरुषार्थ द्वारा ऎसे स्वाधीन राज्य के शासक बने, जिसका निर्माण स्वयं उन्होंने ही किया था। उन्होंने उसे एक सुगठित शासन-प्रणाली एवं सैन्य-संगठन द्वारा सुदृढ़ करके जन साधारण का भी विश्वास प्राप्त किया। जिस स्वतंत्रता की भावना से वे स्वयं प्रेरित हुए थे, उसे उन्होंने अपने देशवासियों के हृदय में भी इस प्रकार प्रज्वलित कर दिया कि उनके मरणोंपरान्त औरंगज़ेब द्वारा उनके पुत्र का वध कर देने, पौत्र को कारागार में डाल देने तथा समस्त देश को अपनी सैन्य शक्ति द्वारा रौंद डालने पर भी वे अपनी स्वतंत्रता बनाये रखने में समर्थ हो सके। उसी से भविष्य में विशाल मराठा साम्राज्य की स्थापना हुई। शिवाजी यथार्थ में एक व्यावहारिक आदर्शवादी थे। vinay kumar jain